देश और उत्तर प्रदेश में राम मंदिर का मुद्दा हमेशा से जनता से जुड़ा मुद्दा रहा है। रामलला को लेकर लोगों की आस्था अलग प्रकार की है। वे जनमानस से जुड़े देवता के रूप में पूजे जाते हैं। लोग उन्हें भगवान और उससे भी बढ़कर मर्यादा पुरुषोत्तम, मतलब पुरुषों में जिन्होंने एक मर्यादा स्थापित की हो, ऐसी दृष्टि से देखा जाता है। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका राम को लेकर अलग भावना रखता हैं। उन्हें इस वर्ग में इमाम-ए-हिंद के रूप में माना जाता है। ऐसे भगवान राम के बाल स्वरूप को तालों के पीछे कैद किए जाने को इमरजेंसी के बाद मुद्दा बनाया गया। जनसंघ के विघटन और भारतीय जनता पार्टी के उदय के साथ ही उन विवादित मु्द्दों को छेड़ा जाने लगा, जिसको उठाने के पहले लोग एक प्रकार का संकोच बरतते थे। हिंदू वर्ग कभी भी अपने मुद्दों को लेकर अधिक वोकल नहीं था। बात रखने को लेकर एक मर्यादा रखी जाती थी, लेकिन 80 के दशक में यह मर्यादा टूटती दिखने लगी।
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आजादी के बाद से भारतीय राजनीति में राम का मुद्दा हमेशा गरमाता रहा। 1949 में रामलला के बाबरी मस्जिद में प्रकट होने के बाद से भारतीय राजनीति में राम कहीं न कहीं एक ध्रुव पर स्थापित हो चुके थे। दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था। 1950 में लागू संविधान के तहत भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया गया। वहीं, मुस्लिम राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का गठन हो चुका था। इसके बाद भारत के सांस्कृतिक धरोहरों को वापस पाने की मुहिम शुरू हुई। जनसंघ की ओर से इन मुद्दों को छेड़ा जरूर जाता था, लेकिन यह पार्टी कभी भी उस स्तर पर इन मुद्दों को खड़ा करने में कामयाब नहीं हो पाई थी।
हिंदुओं में गरम दल पर शुरू हुआ काम
हिंदुओं के सॉफ्ट नेचर से अलग श्रीकृष्ण की महाभारत में भूमिका को प्रचारित किया जाने लगा। लोग कहने लगे कि जब जरूरी हो और धर्म की रक्षा का सवाल आए तो शस्त्र उठाना भी जरूरी है। यहां शस्त्र उठाने का अर्थ अपने मुद्दों को जोरदार तरीके से रखना था। इसी दरम्यान महंत अवैद्यनाथ और बाला साहब ठाकरे का उदय हो चुका था। दोनों हिंदू धर्म की ग्राम वाली राजनीति के पुरोधा माने जाते हैं। इन लोगों ने लगातार मुद्दे को गरमाए रखा। फिर 1986 में कुछ ऐसा हुआ, जिसने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल कर रख दी।
1949 में अयोध्या डीएम के सुझाव पर पंडित जवाहरलाल नेहरू और गोविंद बल्लभ पंत सरकार ने जिस बाबरी मस्जिद में फेंसिंग करने और श्रद्धालुओं को रामलला के निकट न जाने के लिए पर्याप्त उपाय किए थे। राजीव गांधी सरकार ने इस मामले में बड़ा निर्णय लिया। राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर प्रभु रामलला की पूजा को लेकर काम शुरू कर दिया गया। दरअसल, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को सबसे बड़ी जीत मिली। बावजूद इसके कांग्रेस के प्रति असंतोष बढ़ रहा था।
भाजपा के उदय के बाद बदली स्थिति
एक तरफ मंडल आंदोलन प्रभावित हो रहा था। दूसरी तरफ देश में भारतीय जनता पार्टी का उदय हो चुका था 1980 में गठित हो गई थी। भारतीय जनता पार्टी ने अपने एजेंडे में तीन अहम प्रस्ताव रखे गए थे। इसमें अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को हटाया जाना और देश में समान नागरिक संहिता लागू करना प्रमुख था। इन एजेंडों को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने अपना पैर फैलाना शुरू किया। शुरुआती दिनों में पार्टी को भले ही बड़ी सफलता हाथ नहीं लगेी, लेकिन हिंदुओं के एक बड़े वर्ग की आवाज पार्टी बनती दिखी।
वर्ष 1986 की वह घटना को राजनीतिक रूप से राजीव गांधी की सबसे बड़ी भूल मानी जाती है। इस निर्णय के बाद देश में कांग्रेस के जनाधार में लगातार गिरावट आई। पार्टी कभी भी इस निर्णय के बाद पूर्ण बहुमत हासिल करने में अब तक सफल नहीं हो पाई। राम मंदिर के लिए चला आंदोलन हो या इसके लिए हिंदुओं को एकजुट करने की पहल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) व उससे जुड़े संगठन सबसे आगे रहे हैं। लेकिन, क्या राम मंदिर के लिए पूरा श्रेय इन्हें दिया जाना सही है? क्या कांग्रेस ने इसकी खातिर कुछ नहीं किया?
राम मंदिर पर आज क्या है कांग्रेस का रुख?
इस समय कांग्रेस की भूमिका बेहद भ्रमित नजर आ रही है। दो ध्रुव बन गए हैं। राहुल गांधी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद समेत कई नेता भूमिपूजन के आयोजन पर सवाल उठा रहे हैं।
वहीं, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने ट्वीट किया- भगवान राम और माता सीता के संदेश और उनकी कृपा के साथ रामलला के मंदिर के भूमिपूजन राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर बनेगा।
मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भगवा चोला पहनकर हनुमान चालीसा का पाठ कराया। मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी की ओर से राम मंदिर के लिए 11 चांदी की ईंटें भेंट करने का ऐलान भी कर दिया।
क्या है कांग्रेस के भाजपा-संघ पर आरोप?
कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने राम मंदिर ट्रस्ट पर निशाना साधा और कांग्रेस नेतृत्व को भूमिपूजन कार्यक्रम में न बुलाने को लेकर कहा कि यह कार्यक्रम पूरी तरह से भाजपा-संघ का आयोजन हो गया है।
खुर्शीद ने कहा कि किसी एक नेता को नहीं, बल्कि इस कार्यक्रम में तो राजनीतिक स्पेक्ट्रम के सभी नेताओं को बुलाया जाना चाहिए। ट्रस्ट के पदाधिकारी मोदी सरकार के करीबी हैं और उनके कहने पर ही काम हो रहा है।
कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने कहा कि यह एक जनआंदोलन था। अब मंदिर साकार हो रहा है तो उसमें राजनीति क्यों लाई जा रही है? आंदोलन तो संघ के बनने से पहले से चल रहा था।
कांग्रेस के एजेंडे में भी थे राम
कांग्रेस के एजेंडे में शुरुआती दिनों में राम जरूर थे। आप महात्मा गांधी को देखेंगे तो पाएंगे कि उनका भगवान राम से गहरा नाता था। महात्मा गांधी अक्सर कहते थे कि भगवान राम के नाम से मुझे ताकत मिलती है। यह मुझे संकट के क्षणों से उबारती है। नई ऊर्जा देती है। एक सच्चे रामभक्त की तरह उन्होंने पूरे जीवन राम नाम का जाप किया। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में भी सरलता, सादगी और आत्म समर्पण को अपनाया। राजीव गांधी को भी भगवान राम और रामायण के देश पर प्रभाव का ज्ञान था। यही कारण था कि 1985 में उनके कहने पर दूरदर्शन पर रामानंद सागर के रामायण के प्रसारण की योजना तैयार की गई। वर्ष 1987 से 1988 के बीच इस धारावाहिक का प्रसारण दूरदर्शन पर किया गया था।
1986 में हुआ था अहम निर्णय
राजीव गांधी ने वर्ष 1986 में राम मंदिर को लेकर बड़ा निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने यूपी के तत्कालीन सीएम वीर बहादुर सिंह को मनाया। राम जन्मभूमि मंदिर के ताले खुलवाए गए। इसके बाद हिंदुओं को प्रभु रामलला के दर्शन का मौका मिला। बोफोर्स मामले में घिरे राजीव गांधी ने लोकसभा चुनाव 1989 के भाषणों में अक्सर देश में रामराज्य लाने का वादा किया। 1989 में उन्होंने विश्व हिंदू परिषद को राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति दे दी। तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह को उन्होंने शिलान्यास कार्यक्रम में भेजा। हालांकि, मंडल की राजनीति ने राजीव के सभी प्रयासों की हवा निकाल दी। यूपी में जनता दल की सरकार बनी।
मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 1990 में अयोध्या में रामलला मंदिर की कारसेवा करने पहुंचे कारसेवकों पर जो कुछ हुआ, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। हालांकि, 1986 के राजीव सरकार के फैसले की जब भी चर्चा होती है तो कहा जाता है कि उन्होंने 1984 के सिख दंगों का कलंक धोने के लिए हिंदुओं को साधने की रणनीति पर काम किया। हालांकि, अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि राजीव पर भगवान राम का असर था। भाजपा के पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी तो यहां तक दावा करते हैं कि अगर 1989 में राजीव सरकार बनती तो निश्चित तौर पर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती।