बिहार की राजनीति में बगहा विधानसभा सीट एक ऐतिहासिक पहचान रखती है। कभी यह कांग्रेस की अभेद्य दीवार हुआ करती थी, लेकिन अब यह भारतीय जनता पार्टी की मजबूत पकड़ का केंद्र बन चुकी है। बगहा की राजनीतिक यात्रा में सत्ता के पलड़े कई बार बदले हैं, लेकिन एक चीज़ आज भी स्थिर है—यह सीट हर चुनाव में बिहार की राजनीति की दिशा तय करती है।
नरकटियागंज: जातीय समीकरण और अधूरी उम्मीदें बना रही हैं चुनावी मैदान को दिलचस्प
कांग्रेस का अभेद्य किला टूटा कैसे?
1957 से 1985 तक कांग्रेस के नरसिंह भाटिया ने छह बार यहां जीत दर्ज की, लेकिन 1990 में पूर्णमासी राम ने जनता दल के टिकट पर यह दीवार गिरा दी। इसके बाद यह सीट कभी कांग्रेस के पास नहीं लौटी।
जातीय समीकरणों का खेल
बगहा की राजनीति केवल दल नहीं, जातीय समीकरण भी तय करते हैं। राजपूत, यादव, ब्राह्मण, महादलित और मुसलमान वोटर यहां निर्णायक भूमिका निभाते हैं। खास बात यह रही कि 2020 में एनडीए ने पश्चिम चंपारण की किसी भी सीट से ब्राह्मण प्रत्याशी नहीं उतारा, जिससे एक बड़ा वर्ग नाराज हुआ और इसका असर बगहा जैसी सीटों पर देखने को मिला।
2020 का मुकाबला
भाजपा के राम सिंह ने कांग्रेस के जयेश मंगलम सिंह को लगभग 30,000 वोटों से हराया। लेकिन सिर्फ आंकड़े काफी नहीं हैं, ज़मीनी हकीकत बताती है कि गन्ना मूल्य, शिक्षा व्यवस्था और बगहा को जिला दर्जा न दिए जाने जैसे मुद्दों ने जनता के दिल में सवाल छोड़ दिए हैं।
क्या 2025 में बदलाव संभव है?
2025 का चुनाव नई कहानी लिख सकता है। सवाल हैं — क्या भाजपा अपनी पकड़ बनाए रख पाएगी? क्या ब्राह्मण वोट का असंतोष विपक्ष को फायदा पहुंचाएगा? और क्या बगहा फिर किसी नए राजनीतिक चेहरा को मौका देगा?
ग्राउंड रियलिटी: बगहा की 3.5 लाख की जनसंख्या में अधिकांश लोग खेती पर निर्भर हैं। रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएं और बुनियादी सुविधाएं यहां के बड़े मुद्दे हैं। अगर कोई भी दल इन बिंदुओं को लेकर मजबूत रणनीति बनाता है, तो बाज़ी पलट सकती है।
बगहा सीट बिहार की उन गिनी-चुनी सीटों में से है, जहां अतीत, जाति, विकास और जनभावनाएं एक साथ टकराती हैं। 2025 के चुनाव में यहां की लड़ाई सिर्फ उम्मीदवारों की नहीं होगी, बल्कि भरोसे, इतिहास और भविष्य की दिशा तय करने वाली होगी।