नई दिल्ली: देश की सर्वोच्च अदालत ने एक अहम फैसले में नौकरीपेशा लोगों के लिए नई चुनौती पेश कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नियोक्ता अब अपने कर्मचारियों पर सर्विस बॉन्ड (Employment Bond) लागू कर सकते हैं, और अगर कर्मचारी तय समय से पहले नौकरी छोड़ते हैं तो उनसे प्रशिक्षण पर हुए खर्च की वसूली की जा सकती है। यह फैसला उन कंपनियों के लिए राहत भरा है जो अपने कर्मचारियों की ट्रेनिंग पर भारी निवेश करती हैं।
क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई 2025 को दिए अपने आदेश में यह स्पष्ट किया कि सर्विस बॉन्ड “व्यापार पर रोक” (रेस्ट्रेंट ऑफ ट्रेड) नहीं है, जो कि भारतीय अनुबंध अधिनियम (Indian Contract Act) की धारा 27 के तहत प्रतिबंधित है। कोर्ट ने कहा, “नियोक्ता-कर्मचारी संबंध, तकनीकी विकास, काम की प्रकृति, रीस्किलिंग और एक मुक्त बाजार में विशेषज्ञ कार्यबल को बनाए रखने जैसे मुद्दे अब सार्वजनिक नीति के क्षेत्र में उभर रहे हैं। इन पहलुओं को रोजगार अनुबंध की शर्तों का मूल्यांकन करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।”
यह मामला विजया बैंक के एक कर्मचारी प्रशांत नरनावरे से जुड़ा है। नरनावरे को तीन साल की अनिवार्य सेवा अवधि पूरी किए बिना नौकरी छोड़ने पर बैंक ने 2 लाख रुपये का ‘लिक्विडेटेड डैमेज’ (जुर्माना) लगाया था। इसके खिलाफ उन्होंने कर्नाटक हाई कोर्ट में अपील की थी, जहां उनके पक्ष में फैसला सुनाया गया और जुर्माने पर रोक लगा दी गई। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के इस फैसले को पलटते हुए विजया बैंक के पक्ष में निर्णय दिया।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला उन कंपनियों के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा जो अपने कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने में काफी समय और धन खर्च करती हैं। खासतौर पर आईटी, बैंकिंग और तकनीकी क्षेत्रों में, जहां कर्मचारियों का टर्नओवर रेट अधिक है, यह फैसला कंपनियों को आर्थिक नुकसान से बचाने में मदद करेगा। डेलॉयट की एक 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कर्मचारी टर्नओवर रेट सालाना 15-20% के बीच है, जिसके चलते कंपनियों को भारी वित्तीय नुकसान होता है।
इस फैसले के बाद कर्मचारियों के लिए जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना मुश्किल हो सकता है। अगर कोई कर्मचारी सर्विस बॉन्ड की शर्तों को तोड़कर नौकरी छोड़ता है, तो उसे नियोक्ता को ट्रेनिंग लागत के रूप में मोटी रकम चुकानी पड़ सकती है। इससे कर्मचारियों को नौकरी बदलने से पहले ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी।
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच संतुलन बनाने की दिशा में एक कदम है। हालांकि, वे यह भी सलाह देते हैं कि कंपनियों को बॉन्ड की शर्तें तय करते समय उचित और तर्कसंगत होना चाहिए, ताकि इसे अनुचित या दमनकारी न माना जाए।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल नियोक्ताओं को मजबूती देता है, बल्कि कर्मचारियों को भी अपने रोजगार अनुबंध की शर्तों को गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित करता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में यह फैसला भारत के रोजगार परिदृश्य को कैसे प्रभावित करता है।