सहरसा विधानसभा Saharsa Vidhan Sabha क्षेत्र संख्या-75 बिहार की राजनीति में बेहद अहम मानी जाती है। सहरसा जिले में आने वाली यह सीट राजनीतिक इतिहास और जातीय समीकरणों की वजह से हमेशा चर्चा में रहती है। कभी यह सीट कांग्रेस का अभेद्य गढ़ मानी जाती थी, लेकिन पिछले दो दशकों से भाजपा यहां लगातार मजबूत स्थिति में है और उसका दबदबा कायम है।
चुनावी इतिहास
सहरसा का चुनावी अतीत काफी दिलचस्प रहा है। 1957 के पहले चुनाव से लेकर कई दशकों तक कांग्रेस ने इस सीट पर विजय पताका फहराई। कांग्रेस नेता रमेश झा पांच बार यहां से विधायक रहे, जिनमें चार बार कांग्रेस और एक बार अन्य दल के टिकट पर उन्होंने जीत हासिल की। 1990 के दशक में राजनीतिक समीकरण बदले और जनता दल के शंकर प्रसाद टेकरीवाल ने इस सीट पर अपनी पकड़ बनाई। 1995 और 2000 में टेकरीवाल लगातार चुनाव जीते, जिसमें 2000 में उन्होंने आरजेडी उम्मीदवार के रूप में सफलता पाई। हालांकि 2005 आते-आते राजनीतिक हवा बदली और भाजपा के संजीव कुमार झा ने टेकरीवाल को हराकर इस सीट पर भगवा झंडा गाड़ दिया।
Sonbarsa Vidhansabha: जेडीयू की परंपरागत सीट पर बदलते समीकरणों की आहट
2010 में भाजपा के आलोक रंजन झा ने जीत दर्ज की और राजद उम्मीदवार अरुण कुमार को कड़ी टक्कर देकर पराजित किया। हालांकि 2015 में समीकरण बदले और राजद के अरुण कुमार ने 1,02,850 वोटों के साथ जीत हासिल की, जबकि भाजपा उम्मीदवार आलोक रंजन को 63,644 वोट मिले। यह मुकाबला सहरसा की राजनीति में एक बड़ा मोड़ साबित हुआ।
2020 के विधानसभा चुनाव में यह सीट फिर से भाजपा के खाते में चली गई। आलोक रंजन झा ने आरजेडी की लवली आनंद को 19,679 वोटों के अंतर से हराकर जीत दर्ज की। इस चुनाव में आलोक रंजन को 1,03,538 वोट (45.59%) मिले, जबकि लवली आनंद को 83,859 वोट (36.93%) प्राप्त हुए। मुकाबला शुरूआत में कांटे का रहा, लेकिन अंत में भाजपा ने बढ़त बना ली। वहीं निर्दलीय उम्मीदवार किशोर कुमार और रंजीत कुमार राणा ने क्रमशः तीसरा और चौथा स्थान हासिल किया।
जातीय समीकरण
अगर जातीय समीकरण की बात करें तो इस सीट पर यादव, ब्राह्मण और मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इनके साथ राजपूत, कोइरी, कुर्मी, रविदास और पासवान समाज की भी उल्लेखनीय मौजूदगी है। कुल तीन लाख साठ हजार से अधिक मतदाताओं में पुरुषों की संख्या अधिक है, जो 52.6 फीसदी तक पहुंचती है। यही वजह है कि राजनीतिक दल हर चुनाव में इन जातीय और सामाजिक समीकरणों को साधने की रणनीति बनाते हैं।
सहरसा विधानसभा सीट का बदलता हुआ चुनावी इतिहास इस बात की गवाही देता है कि यहां के मतदाता समय और परिस्थितियों के अनुसार अपनी पसंद बदलते रहे हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनाव में क्या भाजपा अपनी पकड़ बनाए रख पाती है या फिर विपक्षी दल यहां राजनीतिक समीकरणों को पलटने में सफल होते हैं।






















