Manjhi Vidhansabha 2025: बिहार की राजनीति में मांझी विधानसभा सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 114) हमेशा से ही सुर्खियों में रही है। सारण जिले के इस ग्रामीण क्षेत्र ने राज्य की सत्ता समीकरणों को कई बार प्रभावित किया है। मांझी सीट को कांग्रेस, जनता दल (यू) और अब लेफ्ट के उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक सफर ने बेहद रोचक बना दिया है।
चुनावी इतिहास
मांझी विधानसभा का इतिहास कांग्रेस की मजबूत पकड़ से शुरू होता है। यहां हुए 16 चुनावों में सबसे ज्यादा सात बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की। हालांकि, 2000 के दशक में जब बिहार की राजनीति में जेडीयू का दबदबा बढ़ा, तब मांझी ने भी गौतम सिंह के रूप में तीन बार उन्हें विधानसभा भेजा। फरवरी 2005 से 2010 तक जेडीयू की लगातार जीत ने इस सीट पर नीतीश कुमार की पकड़ मजबूत कर दी थी।
लेकिन 2015 का चुनाव ऐतिहासिक मोड़ लेकर आया। महागठबंधन में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस एक साथ आए, और यह सीट कांग्रेस के खाते में चली गई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विजय शंकर दुबे ने इस चुनाव में एलजेपी के उम्मीदवार को 8,866 वोटों से हराकर जीत हासिल की। दुबे का राजनीतिक सफर लंबा और संघर्षपूर्ण रहा है। 1977 से राजनीति में सक्रिय दुबे ने कई बार चुनाव जीतकर अपनी अलग पहचान बनाई और बिहार सरकार में मंत्री पद तक पहुंचे।
2020 में जब एनडीए और महागठबंधन का नया समीकरण बना तो इस सीट की दिशा ही बदल गई। यह सीट महागठबंधन के तहत लेफ्ट के खाते में गई और सीपीआई (एम) के सत्येंद्र यादव ने राणा प्रताप सिंह को भारी मतों से हराकर इतिहास रच दिया। यादव को जहां 58 हजार से ज्यादा वोट मिले, वहीं निर्दलीय प्रत्याशी राणा प्रताप सिंह को करीब 34 हजार वोट हासिल हुए। जेडीयू की माधवी कुमारी तीसरे स्थान पर रहीं।
जातीय समीकरण
मांझी विधानसभा का जातीय समीकरण भी राजनीतिक दलों की रणनीति तय करता रहा है। इस क्षेत्र में यादव और राजपूत वोटरों का वर्चस्व है, जबकि ब्राह्मण वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 3.99 लाख से ज्यादा की आबादी में 12.64% अनुसूचित जाति और 3.6% अनुसूचित जनजाति के मतदाता हैं। पूरी तरह ग्रामीण इलाका होने के कारण यहां का राजनीतिक मिजाज जातीय समीकरणों और स्थानीय मुद्दों से गहराई से प्रभावित होता है।
मांझी विधानसभा का राजनीतिक सफर बिहार की राजनीति का आईना है, जहां कांग्रेस से लेकर जेडीयू और अब लेफ्ट तक की ताकतें उभरती और बदलती रही हैं। 2025 के चुनाव में यह सीट एक बार फिर सियासी दलों के लिए बड़ा इम्तिहान साबित होने वाली है।






















