Makhdoompur Vidhan Sabha 2025: जहानाबाद जिले की राजनीति में मखदुमपुर विधानसभा (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 118) हमेशा से एक दिलचस्प और निर्णायक सीट रही है। अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित यह सीट न केवल दलित नेतृत्व के उत्थान का प्रतीक रही है, बल्कि यहां से कई बड़े नेताओं ने बिहार की राजनीति में अपनी पहचान भी बनाई है। इस सीट से 2010 में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी विधायक बने थे, जिन्होंने इस क्षेत्र को राज्य की राजनीति में नई पहचान दिलाई। वहीं लालू यादव सरकार में मंत्री रहे बागी वर्मा 1995 और 2000 में दो बार यहां से निर्वाचित हुए थे, जबकि नीतीश सरकार के पूर्व मंत्री कृष्णनंदन वर्मा भी 2005 में इसी सीट से विधायक बने।
चुनावी इतिहास
1951 में स्थापित मखदुमपुर विधानसभा का चुनावी इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है। अब तक यहां 17 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। शुरुआती वर्षों में कांग्रेस का दबदबा रहा, जिसने 7 बार जीत दर्ज की। आखिरी बार कांग्रेस ने 1990 में इस सीट पर विजय हासिल की थी। इसके बाद यहां का समीकरण तेजी से बदला और जनता दल से निकली पार्टियों ने अपनी पकड़ मजबूत की। आरजेडी ने 4 बार, जबकि जेडीयू और लोजपा ने एक-एक बार जीत दर्ज की है। खास बात यह है कि 1995 के बाद से इस सीट पर कांग्रेस का खाता नहीं खुल पाया।
हाल के वर्षों में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) का प्रभाव लगातार बढ़ा है। 2015 और 2020 में आरजेडी ने इस सीट पर जीत हासिल की, जिससे यह पार्टी का एक मजबूत गढ़ बन चुका है। 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी उम्मीदवार सतीश दास ने हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (HAM) के देवेंद्र कुमार को पराजित किया था, जबकि बहुजन समाज पार्टी (BSP) तीसरे स्थान पर रही थी। इस जीत ने स्पष्ट कर दिया कि मखदुमपुर में सामाजिक समीकरण और आरजेडी का जातीय गणित अब भी मजबूत है।
हालांकि, 2025 का चुनाव पूरी तरह अलग परिस्थिति में होने जा रहा है। नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी की राजनीतिक दूरियां, महागठबंधन की संभावनाएं और एनडीए का नया समीकरण – यह सब मिलकर मखदुमपुर की सियासत को दिलचस्प बना रहे हैं। आरजेडी के लिए यह सीट प्रतिष्ठा की होगी, जबकि मांझी की पार्टी हम (Hindustani Awam Morcha) इसे अपने परंपरागत आधार वाले क्षेत्र के रूप में पेश करने की कोशिश करेगी।
जातीय समीकरण
जातीय दृष्टिकोण से देखें तो मखदुमपुर विधानसभा में अनुसूचित जाति मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं, लेकिन इसके अलावा कोइरी, यादव और भूमिहार जातियों की संख्या भी प्रभावशाली है। यही वर्ग यहां के चुनावी नतीजों का रुख तय करता है। आरजेडी को यादवों का समर्थन मिलता रहा है, जबकि मांझी दलित वोटों पर पकड़ बनाए हुए हैं। वहीं जेडीयू और बीजेपी गठबंधन भूमिहार और कोइरी मतदाताओं पर भरोसा जताती रही है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन-सा गठबंधन इन समीकरणों को अपने पक्ष में साध पाता है।






















