Prashant Kishor Bihar Politics: बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर भले ही सीटें न जीत पाए हों, लेकिन करीब 17 लाख वोटों ने यह संकेत तो जरूर दे दिया कि उनकी बात को लोग सुने बिना नहीं रहते। चुनाव हारने के बाद भी प्रशांत किशोर का यह कहना कि वे मैदान छोड़ने वाले नहीं हैं और बिहार में ही राजनीति जारी रखेंगे, सियासी हलकों में बहस का नया मुद्दा बन गया है। अब उनका अगला ऐलान-ठंड के बाद एक और पदयात्रा और इस बार महिलाओं के बीच जाकर यह कहना कि “10,000 तो मिल गया… अब हम 2 लाख दिलवाएंगे”-पूरे राजनीतिक परिदृश्य में नई खलबली मचा रहा है।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ इस वादे पर राजनीति टिक सकेगी? क्या जनता इस लाइन पर भरोसा बनाए रखेगी? चुनावी आंकड़ों, राजनीतिक रणनीति और बदलते जनभाव के बीच एक बात साफ दिख रही है कि प्रशांत किशोर के सामने अब असली चुनौती अगले पांच साल की है और इस चुनौती को पूरा करने के लिए उन्हें महज नारों से आगे बढ़कर जमीन पर अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी।
चुनाव प्रचार के दौरान उनकी भाषा, उनके मुद्दे और उनका तेवर लोगों को पसंद तो आया, पर बड़े पैमाने पर जनता को यह समझ नहीं आया कि वे जो बड़े-बड़े समाधान कह रहे हैं, उन्हें लागू कैसे किया जाएगा। “बिहार में रोजगार देंगे”, “स्टार्टअप से आय बढ़ेगी”, “बदलेगा बिहार का मॉडल”-ये बातें प्रेरक थीं, पर स्पष्ट रोडमैप की कमी ने वोटरों को असमंजस में डाल दिया। बिहार के लोग सपना तो देखना चाहते हैं, लेकिन हवा में बने सपने नहीं। उन्हें धरातल वाला मॉडल चाहिए। शायद इसी वजह से लोगों ने कहा-“अच्छा बोलते हैं, लेकिन समझ में नहीं आता।”
एक और अहम गलती थी टिकट वितरण। उन्होंने कहा कि 90% नए लोगों को टिकट दिया, लेकिन 10% ऐसे चेहरे भी शामिल हुए जो कई पार्टियों से घूमकर आए थे और यही 10% पूरी पार्टी की पहचान पर भारी पड़ गए। चुनावी मैदान का तजुर्बा कहता है कि चेहरे नहीं चुनिए, जनता के साथ खड़े होने वाले सिपाही चुनिए-यहीं PK चूक गए।
अब जब प्रशांत किशोर अगले पांच साल बिहार में राजनीति जारी रखने की बात कर रहे हैं, तो उनके सामने पहला बड़ा सवाल यही है कि क्या “10,000 से 2 लाख” वाला मुद्दा स्थायी रहेगा? यह मुद्दा उनका नहीं, एनडीए का है। अगर सरकार आगे चलकर वाकई यह राशि बढ़ाती है, तो उसका श्रेय एनडीए को मिलेगा, PK को नहीं। इसलिए इस पिच पर खेलना उनके लिए खतरनाक हो सकता है।
बिहार में बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास-ये पांच मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर राजनीति अगले कई साल टिक सकती है। PK को इन मुद्दों पर साफ, व्यावहारिक और लागू होने वाला मॉडल पेश करना होगा, जो वोटर को समझ भी आए और भरोसा भी।
दूसरी चुनौती संगठन की है। पदयात्रा शानदार थी, लेकिन आलोचकों का कहना है कि प्रशांत किशोर जनता के असली प्रतिनिधियों तक नहीं पहुंच पाए। उनके कैंपों में चयनित लोग आते थे, गांवों के असली प्रभावी लोग नहीं। जनता यह महसूस कर ले कि नेता उनके घर-द्वार तक आ रहा है-तभी असर होता है। स्विस टेंट, नियंत्रित भीड़ और निर्धारित मुलाकातें वह ‘बिहारीपन’ नहीं पैदा करतीं जिसकी PK को सबसे ज्यादा जरूरत है।
राजनीति दौड़ नहीं, धैर्य की मैराथन है। जनता उन नेताओं को ही लंबे समय तक याद रखती है, जो हर चुनाव में मौजूद रहते हैं, चाहे जीतें चाहे हारें। PK को अब यह साबित करना होगा कि वे सिर्फ चुनाव प्रबंधक नहीं, एक जमीनी नेता भी हैं। अगले किसी भी चुनाव-चाहे एमएलसी हो या पंचायत स्तर का-में उम्मीदवार उतारकर जीत दिलाना ही उनकी पहचान को नया आधार देगा।
इतना तय है कि 17 लाख वोट कोई छोटा आंकड़ा नहीं। इन वोटों में उम्मीद है। भरोसा है। लेकिन भरोसे को ठोस जमीन पर खड़ा करने के लिए प्रशांत किशोर को अगले पांच साल लगातार गांवों में जाना होगा, जन स्वराज को वास्तविक जन संपर्क में बदलना होगा और उस मॉडल को सामने लाना होगा जो बिहार की जनता को दिखाए कि बदलाव सिर्फ भाषणों से नहीं, योजनाओं और जमीन से होता है।
प्रशांत किशोर अगर यह कर पाए, तो बिहार की राजनीति में अगली सबसे बड़ी कहानी वही होंगे। अगर नहीं, तो 17 लाख वोट भी आने वाले वक्त में एक अधूरी संभावना की कहानी बनकर रह जाएंगे।




















