बिहार की राजनीति इस समय अलग ही लेवल पर चल रही है। न अभी चुनाव है और न ही हाल-फिलहाल होने की संभावना है, लेकिन गर्मी के साथ-साथ प्रदेश का राजनीतिक तापमान भी रिकॉर्ड स्तर को पार कर रहा है। अब देखिए, एक एसडीओ बिहार की उप मुख्यमंत्री का फोन नहीं उठा रहा है। भाजपा को जातीय जनगणना के फेर में नीतीश कुमार फंसा चुके हैं। वहीं, राजद नीतीश कुमार का रिपोर्ट कार्ड जारी कर रही है। आइए इन घटनाओं को जोड़कर लालू प्रसाद यादव की बिहार की राजनीति में पकड़ से जोड़कर देखते हैं।
नीतीश का रिपोर्ट कार्ड
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने नीतीश सरकार के कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड पेश किया है। अमूमन राजनीतिक दल रिपोर्ट कार्ड पेश करते हैं, लेकिन चलिए सही है। विपक्षी दल ही प्रदेश सरकार का रिपोर्ट कार्ड जारी कर दे। लेकिन, रिपोर्ट कार्ड की इस राजनीति को समझने की जरूरत है। लालू यादव के जेल से बाहर निकलने के बाद से राजद काफी एकजुट दिख रही है। अंदरखाने से निकलने वाली आवाज, भले ही वह तेज प्रताप यादव ही क्यों न रही हो, आजकल बंद है। वहीं, प्रदेश की राजनीति में सुस्त दिखने वाली राजद अचानक से अग्रेसिव हो गई है। लगातार कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है। राजनीति में एक कहावत खूब चर्चित है, जो दिखता है, वही बिकता है। मतलब, जनता की नजर में बने रहना जरूरी है। लालू इसमें तब भी माहिर थे और आज भी हैं।
लालू ने चुना दिन
लालू प्रसाद यादव ने 5 जून का दिन नीतीश सरकार का रिपोर्ट कार्ड जारी करने के लिए चुना। यह दिन बिहार की राजनीति में काफी प्रभावी दिन है। जेपी के संपूर्ण क्रांति दिवस का दिन। इस दिन के जरिए लालू यादव प्रदेश में चल रही एनडीए सरकार के दूसरी संपूर्ण क्रांति का ऐलान कर सकते हैं। बहरहाल, बिहार की राजनीति में लालू यादव भले ही आज भी पावरफुल हों, लेकिन बिना नीतीश उनकी राजनीति गोटी सेट होने से रही। नीतीश को जैसे ही वे अलग-थलग कराते हैं, भाजपा आगे निकल जाती है। इन तमाम चुनौतियों के बीच संपूर्ण क्रांति के दिन बिहार के डेढ़ साल के कुशासन की सरकार पर राजद का हल्लाबोल होने वाला है। इन सब बातों से अलग एक बात तो हर बिहारवासी के मन में इस मौके पर उठ सकती है कि लालू क्या संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं?
दूसरा जेपी कौन?
बिहार और देश में चल रही एनडीए सरकार के खिलाफ क्रांति के लिए क्या वे खुद को दूसरा जेपी मानकर चल रहे हैं? एक सवाल तो यहां उठता ही है। तो यह बात हर किसी को जान और समझ लेनी चाहिए कि जेपी ने समाजवाद की बात की थी। समाजवाद, व्यक्तिवाद से आगे, बहुत आगे होता है। व्यक्तिवाद में व्यक्ति ही प्रधान होता है। जेपी के समाजवाद की परिकल्पना को देखें तो उसमें समाज के विकास के साथ व्यक्ति के विकास की बात कही गई है। यह फॉर्मूला लालू यादव पर तो फिट होता नहीं दिखता। मुख्यमंत्री बनने के बाद कुछ दिनों को छोड़ दें तो उन्होंने समाजवाद की जगह व्यक्तिवाद को तबज्जो दी। खुद राजद के गठन के बाद से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हुए हैं। एक बेटे को डिप्टी सीएम बनाया तो दूसरे बेटे को स्वास्थ्य मंत्री। ऐसे में जेपी के विचार तो कब के उनके लिए हाशिये पर जा चुका है।
बेटे को सीएम बनते देखना ही हसरत?
ऐसे में लालू यादव की ताजा रणनीति सीधे तौर पर अपनी पार्टी को साम-दाम-दंड-भेद से सत्ता में लाने की है। वे अपने जीवन में अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते हैं। इसके लिए रणनीति तैयार कर रहे। विपक्षी दल भी उनकी रणनीति को समझ रहे हैं। जनता दल यूनाइटेड हो या भारतीय जनता पार्टी उनके इस पैतरे को समझ रही है और इसी आधार पर रिएक्शन दे रही है। भले आज राजद की ओर से नीतीश पर करारे हमले किए जा रहे हों, लेकिन सत्ता में आने के लिए अगर उनकी ओर से ग्रीन सिग्नल मिला तो लालू उनके साथ जाने से कभी नहीं हिचकेंगे। यही राजनीति है और इसी राजनीति को समझने और देखने की जरूरत है।