झारखंड प्राकृतिक सौंदर्य के साथ एक से एक आश्चर्य भी समेटे है। छत्तीसगढ़ से तीन किलोमीटर दूर झारखंड के गुमला जिला के डुमरी ब्लॉक के मझगांव का टांगीनाथ धाम भी इसी में एक है। विशाल आकार का त्रिशूल यहां सैकड़ों सालों से खुले में धूप, आंधी-पानी झेल रहा है मगर जरा से जंग तक नहीं। इसकी यह खासियत देश-दुनिया के लोगों के लिए आश्चर्य का कारण हो सकता है तो विज्ञान के लिए चुनौती भी। लगभग आदमकद त्रिशूल और तलवार सतह के ऊपर है।
दिल्ली के कुतुबमीनार के लौह स्तम्भ की तरह
वरिष्ठ पत्रकार नवीन कुमार मिश्र इतिहासकारों के हवाले लिखते हैं कि पत्थर में धंसे त्रिशूल की लंबाई 17 फीट है। घर में पड़ा कोई लोहे का सामान कुछ माह में ही जंग का शिकार हो जाता है। मगर धूप, पानी, आंधी, ठंड के बीच बिना किसी शेड के सैकड़ों साल से यह पहाड़ी पर इस परिसर में गड़ा, पड़ा है, मगर जंग का नामोनिशान नहीं। दिल्ली के कुतुबमीनार के लौह स्तम्भ की तरह। उसमें भी जंग नहीं लगता। वैसे तो करीब तीन सौ फीट की ऊंची पहाड़ी पर बसे टांगीनाथ धाम का पूरा परिसर ही बिखरी पड़ी मूर्तियां, मंदिर के अवशेष पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अभी भी अनुसंधान का विषय है।
तमाड़ के देउड़ी मंदिर की तरह का बनावट
इस मंदिर का निर्माण कब हुआ था इस बारे में अब तक कोई ठोस जानकारी सामने नहीं आ सकी है। शोध की आवश्यकता है। एक किवदंती के अनुसार पांच हजार साल प्राचीन है। यह गुमला का अंतिम गांव मझगांव है, जिला मुख्याला से करीब 60 किलोमीटर दूर। मंदिर से कोई तीन किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के सरगुजा की सीमा है। करीब तीन सौ फीट ऊपर मंदिर के हाते से सटी एक और ऊंची पहाड़ी है तो चारों तरफ हरियाली। त्रिशूल के साथ एक पुराने मंदिर का एक आकर्षक ढांचा है जिसमें बड़े आकार का शिवलिंग है। तमाड़ के देउरी मंदिर की तरह का बनावट।
यहां साक्षात शिव का निवास करते हैं
परिसर में दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, अर्धनारीश्वर, सूर्य, हनुमान आदि की मूर्तियों के साथ दर्जनों छोटे बड़े आकार के शिवलिंग, अलग-अलग आकार के अर्घे। किसी भवन के टूटे हुए कुछ अवशेष जैसे पत्थर जैसे जहां तहां दिखते हैं। मन में सवाल उठेगा कि इतने करीने से पत्थरों को तराश कर अपने दौर में मंदिर और शिवलिंगों का किसने और किस मकसद से निर्माण कराया होगा। टांगीनाथ की शिव मंदिर के रूप में भी ख्याति है। कहते हैं यहां साक्षात शिव का निवास करते हैं। शिवरात्रि और सावन में बड़ी संख्या में यहां लोग आते हैं। मगर आम दिनों में संख्या न के बराबर। दरअसल पूरा इलाका जंगल और पहाड़ों से घिरा है। हाल के वर्षों तक नक्सलियों का प्रभाव ऐसा कि दिन में भी लोग इधर आने से परहेज करें।
ग्रामीणों के अनुसार बहुत पहले यहां के एक लोहार ने लोहा के लोभ में त्रिशूल को काटने की कोशिश की। उसके बाद उसके परिवार का नाश हो गया। इस घटना के बाद से यहां से मीलों दूर तक कोई लोहार परिवार नहीं रहता। देउरी मंदिर की तरह यहां के पुजारी भी आदिवासी मगर खेरवार जाति के हैं।
त्रिशूल जिसकी वजह से इसका नाम टांगीनाथ पड़ा है
यहां का त्रिशूल जिसकी वजह से इसका नाम टांगीनाथ पड़ा है के बारे में माना जाता है कि भगवान परशुराम ने जनकपुर छोड़ने के बाद अपने फरसा को पश्चाताप के लिए यहां गाड़ दिया था। पौराणिक कथा के अनुसार सीता स्वयंवर के दौरान भगवान राम ने शिव का धनुषण तोड़ा तो भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए। जब उन्हें पता चला कि भगवान राम खुद नारायण हैं तो उन्हें गहरी आत्मग्लानि हुई। और पश्चाताप के लिए वे जंगलों की ओर निकल गये और यहां आकर उन्होंने शिव की आराधाना की और अपना फरसा यही जमीन में धंसा दिया। सुना करीब से ही पहाड़ी नदी भी बहती है।
रास्ते में मीलों तक जंगल और घाटी मिलेंगे
सघन रूप से नक्सल प्रभावित इलाका होने के कारण सूरज डूबने के थोड़ा पहले ही इस इलाके से निकल जाना बेहतर है। क्योंकि रास्ते में मीलों तक जंगल और घाटी मिलेंगे। घाघरा के रास्ते से सफर करेंगे तो रास्ता मनमोहक है। नेतरहाट से जुडने वाली पहाड़ी श्रृंखला, धुमावदार रास्ते और घने जंगल बड़े आकर्षक हैं। सिर्फ टांगीनाथ नहीं करीब का पूरा इलाका दिलकश है। अफसोस की बात है कि राज्य सरकार ने सिर्फ मंदिर के सौंदर्यीकरण की औपचारिकता पूरी की है। छह किलोमीटर का सफर कच्चे रास्ते से करना होगा। करीब में खाने के लिए कोई रेस्टोरेंट भी नहीं। रात्रि पड़ाव डालना हो तो गुमला ही ठिकाना है। मंदिर के महत्व के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी सरकार दोहन करना चाहे तो पर्यटकों के लिए यह आकर्षक ठिकाना हो सकता है क्योंकि रास्ते में नेतरहाट के बेहतरीन नजारे भी हैं।