किसी भवन पर बार-बार बिजली गिरे तो इसे क्या कहेंगे। रांची से कोई 20 किलोमीटर दूर रांची-पतरातू रोड पर पिठोरिया से बायें कोई आधा मिलोमीटर से भी कम दूरी पर। राजा जगतपाल सिंह का किला भी इसी में शामिल है। लगभग हर साल इस किले पर बिजली गिरती है। जगतपाल परगनैत था, 84 गांवों की जमींदारी थी। किले में कभी एक सौ कमरे हुआ करते थे। आज हालत यह है कि किला पूरी तरह खंडहर में बदल गया है।
उपेक्षित रहने के कारण सांपों का भी है डेरा
छत लगभग गायब है, अब दीवारें ही बची हैं। दीवारों के दरवाजे और मेहराब पर मुगलिया निर्माण की छाप दिखती है। लोग इस किले को अभिशप्त किले के रूप में जानते हैं। लंबे समय से किला खंडहर के रूप में रहने के कारण लोग इसे भुतहा भी कहते हैं, उपेक्षित रहने के कारण सांपों का भी डेरा है। बहरहाल इस किले का करीब दो सौ वर्षों का इतिहास है मगर राजा जगतपाल के शासन या उनके पुर्खों का कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं मिलता। यह किला विरासत की तरह है मगर किसी सरकार ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया।
बिजली अमूमन ऊंचे स्थानों पर गिरती है
वरिष्ठ पत्रकार नवीन कुमार मिश्र बताते हैं कि देश में सबसे लंबे राजतंत्रीय शासन व्यवस्था का नागवंशी राज की शुरुआत फणी मुकुट राय से इसी सुतियांबे इलाके से हुई थी मगर जगतपाल सिंह के आगे-पीछे कोई राज नहीं रहा। इसकी भी वजह है। हमेशा इस किले पर बिजली गिरने की वजह के बारे में ख्यात पर्यावरणविद नितीश प्रियदर्शी कहते हैं कि अभिशाप मिला हुआ था, यह अलग चैप्टर है। बिजली अमूमन ऊंचे स्थानों पर गिरती है।
अपने समय में यह सबसे ऊंचा भवन था
अपने समय में यह सबसे ऊंचा भवन था और आसपास अभी भी ऊंचे-ऊंचे पेड़ हैं। जो बिजली को आकर्षित करते, खींचते हैं। अब अगल बगल निर्माण हुए मगर पेड़ बिजली को खींचते हैं। भूमिगत लौह अयस्क भी इसकी वजह हो सकती है। हालांकि यही परिस्थितियां तो किले की पहले भी थी तब बिजली क्यों नहीं गिरती थी, सवाल अनुत्तरित है। यह परिसर अब केशरी बंधु के अधीन है। वे कहते हैं कि पहले था अब हर साल बिजली गिरने जैसी बात नहीं है।
किसका शाप, वज्रपात से ही राजा-रानी की मौत
इस किले को लेकर एक किवदंती जो ज्यादा प्रचलित है कि जगतपाल सिंह अंग्रेजों के भक्त थे, दलाल थे। 1831 के कोल विद्रोह के समय भी जगतपाल ने अंग्रेजों की मदद की थी। यहां की अलग भौगोलिक स्थिति के कारण अंग्रेज, आंदोलन का दबा नहीं पाये। तब राजा जगतपाल ने अंग्रेजों की मदद की। 1857 के आंदोलन में भी अंग्रेजों के पक्ष में जगतपाल ने बड़ी भूमिका निभाई। पिठौरिया घाटी को पत्थरों से बंद कर आंदोलनकारियों का रास्ता रोका, अंग्रेजों की रक्षा की। इन्हीं की सूचना पर महान स्वतंत्रता सेनानी और आंदोलन से अंग्रेजों का छक्का छुड़ाने वाले ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव पकड़े गये और रांची के जिला स्कूल परिसर में उन्हें 16 अप्रैल 1858 को कदम्ब के पेड़ पर फांसी दे दी गई।
जगतपाल सिंह खुद फांसी के समय प्रत्यक्षदर्शी थे
नितीश प्रियदर्शी बताते हैं कि जगतपाल सिंह खुद फांसी के समय प्रत्यक्षदर्शी थे। उसी दौरान विश्वनाथ शाहदेव ने कुपित होकर शाप दिया कि तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा। और किले पर वज्रपात होता रहेगा। उसके बाद से बारिश के समय इस किले पर अकसर वज्रपात होता रहता है। ग्रामीणों के अनुसार जगतपाल सिंह में चारित्रिक दोष भी था। प्राचीन डोली प्रथा वाली परंपरा इन पर भी हावी थी। इलाके से शादी के बाद किसी की डोली गुजरती तो नवविवाहिता की पहली रात इनकी हवेली में गुजरती।
इसी एक में एक सिद्ध ब्राह्मण बहन को विदा कराके जा रहे थे, डोली गुजर रही थी। उसके साथ भी वही हुआ तो कुपित होकर नवविवाहिता के भाई ने वंश के नष्ट हो जाने और किले पर वज्रपात का शाप दिया। बताते हैं कि शाप के तुरंत बाद ही, रात में जगतपाल सोये हुए थे । बेमौसम बादल उमड़े-घुमड़े और किले पर वज्रपात हुआ जिसमें अलग-अलग कमरे में रहने के बावजूद जगतपाल सिंह और उनकी पत्नी दोनों की मौत हो गई।
छह माह तक यहीं से शासन, मिला फांसी देने का अधिकार
जगलपाल सिंह की हवेली का खंडहर अभी भी मौजूद है मगर उनके आगे-पीछे राजपरंपरा की कोई कहानी नहीं है। बुजुर्ग ग्रामीण, अपने बुजुर्गों से सुने किस्से के हवाले बताते हैं कि जब अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन उग्र हो गया था उस दौरान जगतपाल सिंह अंग्रेजों का साथ देते हुए उनके बड़े अधिकारियों को बचाया था। छह बड़े अंग्रेज अधिकारियों को छह माह तक छुपाकर अपने किले में रखा था। शासन यहीं से छह माह तक चला। इसी कारण खुश होकर अंग्रेजी शासन ने उन्हें कुछ लोगों को फांसी देने का अधिकार तक दे दिया था।
उस दौरान जगतपाल सिंह एकमात्र परगनैत थे जिन्हें फांसी देने का अधिकार था। साथ ही तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम वैंटिक ने उन्हें 313 रुपये मासिक आजीवन पेंशन की सुविधा दी। जगतपाल ने इलाके में काम कराया था मगर आततायी राजा के रूप में ख्यात था। बहुत आततायी था। अपने ही किले में एक बड़े आंदोलनकारी को भी फांसी की सजा दी थी। अपने खिलाफ उठने वाले विरोध के स्वर का ताकत के बल का दमन करता था।
रंक से राजा अब कोई नामलेवा भी नहीं
ग्रामीण बताते हैं कि जगतपाल एक सामान्य गरीब व्यक्ति थे। पिता-पुत्र पिठौरिया के जंगल में लकड़ी काट, घास से रस्सी तैयार कर खाट बनाकर बेचकर घर चलाते थे। एक दिन कुछ काबुली वाले जो सूद-ब्याजी का धंधा कर लोगों से सोना-चांदी ठगते थे। आभूषण और धन की गठरी लेकर जा रहे थे जंगल में फूड प्वाइजनिंग से सभी छह-सात काबुली वाले मर गये। और माल असबाब जगतपाल को मिल गया। उसी से समृद्ध हो गया। (एक किस्सा यह भी है कि कुछ डकैत लूट का माल लेकर जंगल में थे, अंग्रेज पुलिस के आने के डर से सारा माल छोड़कर भाग गये। और माल जगतपाल के हाथ लग गया)। उसी दौरान सुतियांबे परगना नीलाम होने वाला था तो उसने उसे खरीद लिया।
रातों रात भाग गये रोनियार वैश्य
एक किस्सा ग्रामीणों की जुबान पर है कि जगतपाल ने परकला बांध-तालाब बनवाया था। शाम में इधर ही शौच को जाता था। रास्ते एक रौनियार बनिया था उससे रोज खैनी मांगकर खाने की आदत थी। एक दिन बनिया ने मजाक में कह दिया इतने दिनों से खिला रहा हूं अब तक …. किलो खैनी खिला चुका, उसकी कीमत इतने रुपये है। यह बात जगतपाल को चुभ गई शाम में ही उसे दरबार में बुलवाया और उसे भुगतान का आदेश दिया।
पैसा लेने के बाद रौनियार बनिया लौट ही रहा था कि जगतपाल ने उसे वापस बुलवाया और कहा कि एक बात भूल गया। जितना हमारे परगना में रौनियार बनिया हैं का सुबह यहां नहीं होना चाहिए नहीं तो फांसी दे देंगे। डर से सभी रौनियार बनिया निकल भागे। बताते हैं कि आज तक उस इलाके में रौनियार बनिया नहीं हैं। जबकि अब खुद उनका किला भी वैश्य समाज के ही अधीन है।