आजकल सब्जी बाजार में जो छोटे किस्म के मिट्टी लगे आलू या सफेद आलू की तरह बिकने वाली सब्जी की इस वेरायटी की कीमत आपको चौंकायेगी। पांच से आठ सौ रुपये किलो। और हां, सभी सब्जी बाजार में यह नहीं दिखेगा। नाम है रुगड़ा। एक किस्म का मशरूम। झारखंड के छोटानागपुर के रहने वाले लोग इसे पहचानते हैं। मगर अभी भी बड़ी आबादी है जिसने इसका स्वाद नहीं चखा है। यही मौसम है रुगड़ा के बाजार में आने का।
रुगड़ाबारिश शुरू होने के साथ ही बाजार में दिखने लगता है। इसके जायके को लेकर इसे चालू भाषा में शाकाहारी मटन भी लोग कहते हैं। दरअसल सावन के महीने में लोग जब शाकाहार पर रहते हैं, इसका सेवन कर मांसाहार की तलब मिटाते हैं। इसे कुछ उसी अंदाज में बनाया जाता है। हां, इसकी खेती नहीं होती। साल के जंगलों में साल के पेड़ के नीचे से निकलता है।
पारखी लोग ही पहचान कर इसे निकालते हैं
बेड़ो के सुधीर मुंडा बताते हैं कि उनके इलाके में रुगड़ा खूब निकलता है। पारंपरिक आदिवासी समाज के भोजन का यह अहम हिस्सा रहा है। हाल के दशक में जब से आम लोगों के बीच इसके सेवन का प्रचलन शुरू हुआ है कीमत हम गरीब आदिवासियों की पहुंच से बाहर हो गया है। आदिवासी समाज के लोग चिकेन के साथ मिलाकर भी बनाते हैं। मुंडा बताते हैं कि पारखी लोग ही पहचान कर इसे निकालते हैं। यह साल के पेड़ के नीचे ही पाया जाता है।
सेहत को ध्यान में रखकर आदिवासी इसका करते हैं सेवन
बारिश के मौसम में जब बिजली कड़कती है तब साल के पेड़ के नीचे की मिट्टी दरक जाती है, थोड़ा उठ जाती है। लोग समझ जाते हैं कि यहां रुगड़ा है और छोटे चाकू या नुकीले औजार से सतह से चार-छह इंच नीचे मिट्टी कोड़कर उसे निकाला जाता है। मिट्टी इस कदर चिपका रहता है कि इसे साफ करने में काफी मेहनत करना पड़ता है। सेहत को ध्यान में रखकर आदिवासी इसका सेवन करते हैं।
कोलस्ट्रॉल और हाई प्रोटीन से भरपूर होता है रुगड़ा
रुगड़ा मांस जैसा जायका होने के बावजूद लो कोलस्ट्रॉल और हाई प्रोटीन से भरपूर है। इसकी लोकप्रियता बढ़ी तो बीआईटी मेसरा ने भी इस पर शोध कराया ताकि इसे महानगरों की थाली तक पहुंचाया जा सके। इसे कई माह तक सुरक्षित रखना तो संभव हो पाया है मगर न्यूट्रिशन वैल्यू कितना रहा इस पर अभी भी काम होना शेष है। कुछ साल पूर्व बिरसा कृषि विवि के वैज्ञानिकों ने इसकी खेती को लेकर प्रयोग किया था मगर प्रयोग असफल रहा।
रांची के कचहरी चौक पर रुगड़ा बेचने वाली एतवारी कहती है कि गांव में हमलोग इसे सीजन के समय हल्दी आदि लपेटकर मिट्टी के चूल्हे के करीब टांग देते हैं। तब यह लंबे समय तक टिकाऊ रहता है। बाद में जब सब्जी की कमी हो जाती है या परिवार में कोई मेहमान आता है तो उसे खाने के साथ इसकी सब्जी परोसते हैं। इधर ट्राइबल फूड को बाजार में पेश करने की पहल भी शुरू हुई है।
खुखरी यानी स्वाभाविक तौर पर पैदा हुआ जंगली मशरूम
आप भी इसे खरीदने और बनाने के झंझट से बचकर इसे खाना चाहते हैं तो रांची के कांके रोड में ‘अजम एंबा’ या लोधमा-कर्रा रोड स्थित ‘द ट्राइबल्स कीचन्स’ नामक रेस्टोरेंट में भी आप इस समय इसका जयका ले सकते हैं। इसी मौसम में आप को खुखरी भी मिलेगा। खुखरी यानी स्वाभाविक तौर पर पैदा हुआ जंगली मशरूम। मगर इसकी कीमत बाजार में फार्म से आने वाले मशरूम से दोगुना से अधिक कीमत अदा करनी होगी। खुखरी में फार्म के मशरूम से बेहतर टेस्ट और प्रचुर मात्रा में प्रोटीन हासिल होगा। इसमें भी दो तरह का होता है एक छतरी की तरह फैला और दूसरा गठा हुआ। गठा हुआ ज्यादा बेहतर और महंगा होता है। इसका जायका भी मांसाहार की तरह ही है।