Team Insider: पिछले दिनों मुजफ्फरपुर के एक कारखाने में भयावह हादसा हो गया। हादसा इतना भयानक था की लाशों की निकालने में घंटों लग गए। लाशों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होती गयी और यह संख्या 11 के पास पहुँच गयी। इस घटना ने औद्योगिक सुरक्षा के मानकों पर एक बार फिर से सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।
नूडल्स और दूसरे डिब्बाबंद नाश्ते का उत्पादन करने वाले मुजफ्फरपुर के इस कारखाने में रविवार की सुबह कारखाने का बायलर फट गया। जिसमें 11 लोगों ने अपनी जान गवां दी। हम और आप अनुमान कर सकते हैं कि हादसा कितना भयानक था कि इसके धमाके का असर तीन से चार किलोमीटर दूर तक महसूस हुआ। मजदूरों के चीथड़े उड़ गए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, कारखानों में इस तरह के हादसे आम हैं। हमें इस तरह की घटना जब-तब सुनाई और दिखाई देते रहती है। जैसे कि, कहीं गैस रिसाव से तो कहीं आग लगने से मजदूरों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।
हादसों पर सिर्फ संवेदना नहीं है समाधान
हादसे होते हैं, सरकार संवेदना प्रकट करती है, चिंता जताती है और मुआवजे तथा जांच की घोषणा कर फारिग हो जाती है। ऐसा ही नीतीश कुमार की सरकार ने किया और बिहार सरकार ने मृतकों के परिजनों को चार-चार लाख रुपए मुआवजे की घोषणा कर दी। तथा अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर देने की अनुभूति महसूस कर ली। लेकिन सवाल उठता है की इस तरह की घटना या हादसे को रोकने के लिए कोई भी सरकार कब गंभीरता दिखाएंगी या फिर किसी ठोस व्यावहारिक नीति का आत्मसात करेगी।
“भय बिनु होत ना प्रीत”
हम इतना तो मान ही सकते हैं कि “भय बिनु, होत ना प्रीत” कहावत यहां भी चरितार्थ है मतलब औद्योगिक हादसों को लेकर किसी कड़े कानून का हमारे देश में नहीं होना भी इस तरह की घटना को रोकने के प्रति सरकार तथा पूंजीपतियों के लिए उदासीनता का कारण बनता है। और जब भी इस तरह की घटनाएं घटती हैं, तो मरने वालों के परिजनों को मुआवजे की संत्वना वगैरह देकर शांत कर दिया जाता है। जबकि औधोगिक हादसों के लिए दूसरे देशों ने कड़े दंड और भारी जुर्माने का प्रावधान को अमलीजामा पहनाया है। कारण यही है कि औधोगिक घराने, पूंजीपति या फिर स्वयं सरकार द्वारा स्थापित उद्योगों में सुरक्षा संबंधी तमाम पहलुओं पर खासा ध्यान दिया जाता है।
बिना लाइसेंस के भी चलते हैं कारखाने!
हमारे देश या प्रदेश में तो बहुत सारे कारखाने बिना लाइसेंस के ही या फिर प्रशासन से साठगांठ करके चलाए जाते हैं। और जिनके पास लाइसेंस होता भी है तो वे ना तो पर्यावरण प्रदूषण, अग्निशमन, मजदूरों की सुरक्षा और मशीनों आदि के तकनीकी पक्षों को ठीक रखने के मामले में सतर्क होते हैं ना ही इस पर गंभीरता दिखाते हैं। इस तरह के कारखानों में वैसे मजदूरों से कम लिया जाता है जों आम तौर पर अप्रशिक्षित हैं और दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। मुजफ्फरपुर की घटना में यह भी एक प्रमुख कारण है। जहां पर अधिकांश मजदूर दिहाड़ी पर काम करने आए थे। यह तो तय है कि जब आप मशीनों को चलाने के लिए अप्रशिक्षित मजदूरों को रखेंगे तो इसका मतलब है कि खतरे को न्योता दिया जा रहा है। कारखाने में नियमित मजदूर न रखने के कारखानों के मालकों के अलग फायदे हैं जों उन्हें अधिक से अधिक मुनाफे का स्वाद चखाते हैं।
रोजगार के असवर के लिए जान की बाजी लगाना कितना उचित?
इस बात से इंकार नहीं किया जाना चाहिए कि आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक विस्तार की कितनी जरूरत है। निश्चित तौर पर सूक्ष्म कारखाने हजारों, लाखों लोगों के लिए अवसर पैदा करते हैं। और इसीलिए सरकारें इन्हें बढ़ने में सहयोग करती हैं जिससे बहुत सारे लोगों को रोजगार मिल सके साथ ही साथ राजस्व की भी उगाही हो सके। क्या सरकार के राजस्व उगाही या फिर रोजगार की इतनी भर संभावना के आधार पर कारखानों को लोगों की जान से खेलने की छूट मिलनी चाहिए। शायद, आपका भी जवाब होगा “नहीं”।
मुजफ्फरपुर में कारखाने का बायलर फटा और लोगों की जान गई है तो इसकी जांच और जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी किसकी है? अगर इसके लिए जिम्मेदार महकमा या लोग अपनी जिम्मेवारी से मुह मोड़ के खड़े हैं तो क्या उन सभी पर इस हादसे में मरने वालों की हत्या का दोष नहीं बनता?
Story By:- Abhishek Bajpayee