बिहार की राजनीति में कटिहार जिले की बरारी विधानसभा सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 68) हमेशा सुर्खियों में रही है। यह सीट सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही नहीं बल्कि राज्य की सत्ता संतुलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। बरारी का राजनीतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि यहां सत्ता का समीकरण समय-समय पर कांग्रेस, जनता दल, भाजपा और राजद जैसे दलों के बीच बदलता रहा है।
चुनावी इतिहास
1957 से 1980 तक कांग्रेस का दबदबा इस सीट पर स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। इस दौर में वासुदेव प्रसाद सिंह और मोहम्मद शकूर जैसे दिग्गज नेताओं ने जीत हासिल की। लेकिन 1985 के बाद समीकरण बदले और जनता दल तथा लोकदल ने कांग्रेस से यह गढ़ छीन लिया। 1995 में जनता दल के मंसूर आलम ने भाजपा के विभास चंद्र चौधरी को मात दी, जबकि इससे पहले 1990 में भी मंसूर आलम ने जीत दर्ज की थी।
2000 के बाद भाजपा ने इस सीट पर मजबूती दिखाई। विभास चंद्र चौधरी ने 2005 और 2010 के चुनावों में जीत हासिल की। लेकिन 2015 में जब महागठबंधन की लहर चली तो राजद के नीरज यादव ने भाजपा को हराकर यह सीट हथिया ली। उस चुनाव में एनसीपी के मोहम्मद शकूर तीसरे स्थान पर रहे थे।
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2020 के विधानसभा चुनाव ने बरारी सीट की राजनीति को फिर नई दिशा दी। इस बार जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने विजय सिंह को उम्मीदवार बनाया, जिन्होंने राजद प्रत्याशी नीरज कुमार को 10,438 वोटों के अंतर से हराकर जीत दर्ज की। विजय सिंह को कुल 81,752 वोट मिले जबकि नीरज कुमार को 71,314 वोट हासिल हुए। इस जीत ने यह साबित किया कि बरारी सीट पर सत्ता का पलड़ा किसी भी समय पलट सकता है।
जातीय समीकरण
बरारी का चुनावी गणित जातीय समीकरणों से भी प्रभावित होता है। यह सीट मुस्लिम बहुल है, वहीं यादव, राजपूत, ब्राह्मण, पासवान, निषाद और कोइरी मतदाताओं का भी मजबूत प्रभाव है। 2015 की मतदाता सूची के अनुसार यहां कुल 2,37,054 मतदाता थे, जिनमें पुरुष मतदाता लगभग 53.36 प्रतिशत और महिला मतदाता 46.63 प्रतिशत थीं। यह विविध सामाजिक संरचना यहां हर चुनाव में नतीजों को अप्रत्याशित बना देती है।
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बरारी सीट का राजनीतिक इतिहास साफ करता है कि यह क्षेत्र बिहार की राजनीति का बैरोमीटर है। बदलते दलों का दबदबा, जातीय समीकरण और जनता का मूड – ये तीनों ही तत्व आने वाले विधानसभा चुनावों में भी बरारी को चर्चा के केंद्र में बनाए रखेंगे।






















