बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Chunav 2020) जातीय समीकरणों और मुद्दों के बीच संतुलन साधने की कोशिशों का मैदान साबित हुआ। एनडीए (भाजपा, जदयू, वीआईपी, हम) ने अगड़ी और पिछड़ी जातियों का संतुलित गठबंधन बनाया, जबकि महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, वाम दल) ने अपने पारंपरिक वोट बैंक पर भरोसा जताया। वहीं, क्षेत्रीय दलों और नए गठबंधनों ने चुनावी मुकाबले को दिलचस्प बनाने की कोशिश की।
2015 बिहार विधानसभा चुनाव: महागठबंधन की जीत और नीतीश कुमार की सत्ता वापसी
इस चुनाव में जाति हमेशा की तरह एक अहम भूमिका निभाती नजर आई, लेकिन वोटर का रुझान दिखाता है कि केवल जाति के आधार पर चुनाव जीतना अब आसान नहीं रहा। एनडीए ने अपने 15 साल के विकास कार्यों को आधार बनाया, जबकि महागठबंधन ने बेरोजगारी और सरकार की नीतियों को मुख्य मुद्दा बनाया। हालांकि, प्रत्याशियों का चयन जातीय बहुलता को ध्यान में रखकर किया गया। जिन क्षेत्रों में जिस जाति का वर्चस्व था, वहां उसी जाति के उम्मीदवार को टिकट दिया गया। बावजूद इसके, सोशल इंजीनियरिंग और जाति बंधन का प्रभाव अपेक्षाकृत कमजोर साबित हुआ।
छोटे दलों की कोशिशें और नतीजे
उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी ने जाति आधारित राजनीति पर दांव लगाया। कुशवाहा ने 104 में से 48 सीटों पर अपने समुदाय के उम्मीदवार उतारे, लेकिन उन्हें उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली। पप्पू यादव और चंद्रशेखर रावण का गठबंधन भी प्रभावशाली नहीं रहा। वहीं, सीमांचल क्षेत्र में असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने मुस्लिम बहुल इलाकों में कुछ सफलता हासिल की, लेकिन उनका प्रभाव भी सीमित रहा। पुष्पम प्रिया, जिन्होंने जाति आधारित राजनीति से खुद को अलग कर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की थी, चुनाव में बुरी तरह विफल रहीं।
एमवाई समीकरण और लालू-नीतीश का दौर
लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण पर आधारित राजनीति से 15 साल तक बिहार की सत्ता संभाली। 11% यादव और 12.5% मुस्लिम वोट को संगठित करके उन्होंने बड़ी सफलता पाई। लेकिन 2005 में नीतीश कुमार ने मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतकर इस समीकरण को कमजोर कर दिया।
कुर्मी और कुशवाहा की बढ़ती भागीदारी
1980 के बाद से कुर्मी और कुशवाहा समुदाय का राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ता गया। 2010 में कुर्मी समुदाय से 18 और 2015 में 16 विधायक चुने गए। इस चुनाव में भी इन समुदायों का प्रभाव बना रहा, और सभी पार्टियों ने इन वर्गों को प्राथमिकता दी।
अगड़ी जातियों का घटता प्रभाव
1952 से 1977 तक बिहार की राजनीति में ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ जातियों का मजबूत दबदबा था। लेकिन 1977 के छात्र आंदोलन और 1990 के मंडल आंदोलन के बाद इन जातियों का प्रतिनिधित्व घटने लगा। कायस्थ समाज, जो कभी दहाई की संख्या में प्रतिनिधि भेजता था, अब इकाई में सिमट गया है। ब्राह्मण और भूमिहार समुदाय का राजनीतिक प्रभाव भी काफी कम हो चुका है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 ने यह संकेत दिया कि जाति अभी भी एक मजबूत आधार है, लेकिन अब अकेले जाति पर जीत दर्ज करना कठिन है। मुद्दे और प्रदर्शन भी समान रूप से अहम हो गए हैं। चुनाव परिणाम बताते हैं कि मतदाता अब जातीय समीकरणों के साथ-साथ विकास और प्रशासनिक रिकॉर्ड को भी महत्व दे रहे हैं।






















