बिहार विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक रूप से कमजोर प्रदर्शन के बाद कांग्रेस की मुश्किलें (Bihar Congress Crisis) लगातार बढ़ती जा रही हैं। महज छह सीटों पर सिमट चुकी पार्टी 18वीं विधानसभा के पहले सत्र के बाद भी अपना विधायक दल का नेता तय नहीं कर पाई है। सत्र के दौरान कांग्रेस विधायक न सरकार को घेर पाए और न ही विपक्ष की धार तेज कर सके। नेतृत्वहीनता की यह स्थिति पार्टी की गहरी अंदरूनी खामियों को उजागर करती है, जो चुनावी हार के बाद और स्पष्ट दिखाई दे रही है।
चुनाव में करारी शिकस्त ने पार्टी के सामने ऐसा vacuum पैदा कर दिया है कि कोई भी चेहरा सर्वसम्मति से स्वीकार्य नहीं दिख रहा। पिछली विधानसभा में विधायक दल के नेता रहे शकील अहमद खान इस बार चुनाव हार गए। वहीं प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम भी जनता का भरोसा नहीं जीत सके। इन दोनों नेताओं के खिलाफ पहले से ही असंतोष था, और उनकी हार ने नेतृत्व चयन की प्रक्रिया को और उलझा दिया है।
छह विधायकों में तीन नए चेहरे हैं—वाल्मीकिनगर से सुरेंद्र प्रसाद, चनपटिया से अभिषेक रंजन और फारबिसगंज से मनोज विश्वास। अनुभव की कमी के कारण ये विधायी प्रक्रियाओं में अभी दक्ष नहीं माने जाते। अनुभवी विकल्पों में किशनगंज के विधायक कमरुल होदा शामिल हैं, लेकिन उनका एआईएमआईएम से कांग्रेस में हालिया आगमन पार्टी नेतृत्व को असमंजस में डाल रहा है। तीसरी बार जीतकर आए अबिदुर्र रहमान अनुभव रखते हुए भी स्वास्थ्य कारणों से पूरी सक्रियता नहीं दे पा रहे हैं। सबसे वरिष्ठ और पूर्व आईपीएस मनोहर प्रसाद सिंह चौथी बार विधायक बने हैं, लेकिन समीकरण और जातीय संतुलन के कारण पार्टी का एक वर्ग उन्हें उपयुक्त नहीं मान रहा।
एक दिसंबर को पटना पहुंचे कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरू ने इस संकट को दूर करने के लिए बैठक भी की। इसमें प्रदेश अध्यक्ष से लेकर वरिष्ठ नेताओं तक की मौजूदगी रही, परंतु सभी नेताओं की बैठकों और चर्चाओं के बावजूद विधायक दल का नेता चुनने में किसी तरह की सहमति नहीं बन सकी। अब खबर है कि बिहार प्रभारी और प्रदेश अध्यक्ष ने मसले को आलाकमान के पास भेजने की सलाह दी है। विधायकों ने भी आपसी चर्चा के बाद संभावित नामों की फाइल दिल्ली भेज दी है। अब अंतिम निर्णय कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को करना है, जिसके बाद ही बिहार कांग्रेस नेतृत्व पर विराम लगेगा।






















