बिहार की राजनीति में चुनावी नतीजों को लेकर नया विवाद (Bihar Election Controversy) सामने आया है। कांग्रेस के कई वरिष्ठ और सक्रिय नेताओं ने निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते हुए पटना हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। यह मामला केवल नतीजों की असहमति तक सीमित नहीं है, बल्कि चुनावी प्रक्रिया, सरकारी हस्तक्षेप और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा से जुड़ा बताया जा रहा है।
पटना हाईकोर्ट में दायर याचिका में कांग्रेस नेता अमित टुन्ना, ऋषि मिश्रा, प्रवीण कुशवाहा, तौकीर आलम और शशांक शेखर ने आरोप लगाया है कि हालिया बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग ने सत्ताधारी व्यवस्था को गैर-कानूनी तरीके से लाभ पहुंचाया। नेताओं का कहना है कि चुनावी मैदान में बराबरी का अवसर नहीं दिया गया और नियमों का चयनात्मक तरीके से पालन हुआ।
कांग्रेस नेताओं का दावा है कि चुनाव के दौरान बिहार में बड़े पैमाने पर मतदाताओं को 10 हजार रुपये बांटे गए। याचिका में कहा गया है कि यह राशि वोट प्रभावित करने के उद्देश्य से दी गई, जो सीधे तौर पर जनप्रतिनिधित्व कानून और लोकतांत्रिक आचार संहिता का उल्लंघन है। नेताओं का कहना है कि इस कथित गतिविधि के बावजूद निर्वाचन आयोग ने कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की, जिससे उसकी भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
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याचिका में एक अहम तुलना भी सामने रखी गई है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी की ओर से मोबाइल फोन देने की योजना बनाई गई थी, लेकिन निर्वाचन आयोग ने इसे आचार संहिता का हवाला देते हुए तुरंत रोक दिया। वहीं बिहार में कथित तौर पर नकद राशि बांटे जाने के मामले में आयोग की ओर से सख्ती नहीं दिखाई गई। कांग्रेस ने इसे दोहरा मापदंड करार दिया है और कहा है कि नियम सभी के लिए समान होने चाहिए।
नेताओं का आरोप है कि बिहार विधानसभा चुनाव में जो कुछ हुआ, उससे लोकतंत्र की बुनियादी भावना को ठेस पहुंची है। उनका कहना है कि चुनाव केवल वोट डालने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह जनता के भरोसे और निष्पक्ष व्यवस्था पर आधारित होता है। यदि इस भरोसे को कमजोर किया गया तो लोकतंत्र की जड़ें हिल सकती हैं। याचिकाकर्ताओं ने अदालत से मांग की है कि पूरे चुनावी घटनाक्रम की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच कराई जाए, ताकि सच्चाई सामने आ सके और भविष्य में इस तरह की अनियमितताओं को रोका जा सके। कांग्रेस नेताओं का यह भी कहना है कि यदि समय रहते न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हुआ तो आम जनता का चुनावी व्यवस्था से विश्वास उठ सकता है।






















