बिहार में नई सरकार बनने के बाद लोगों की उम्मीद थी कि इस बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में बड़े चेहरे बदलेंगे और शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील विभागों की कमान नए नेतृत्व को दी जाएगी। लेकिन कैबिनेट विस्तार के बाद फिर वही पुराने मंत्री जिम्मेदारी संभालते दिखे, जिसके बाद राजनीतिक हलकों से लेकर आम जनता तक बहस तेज हो गई है कि क्या अब भी बिहार की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था में कोई ठोस बदलाव देखने को मिलेगा या यह सिर्फ सत्ता का पुनरावर्तन है।
प्रदेश में शिक्षा और स्वास्थ्य अक्सर चुनावी मुद्दे रहे हैं, लेकिन रिपोर्टों और जमीनी हालात बताते हैं कि पिछले कार्यकाल में दोनों ही क्षेत्रों को लेकर लगातार असंतोष रहा। अस्पतालों में दवाओं की कमी, डॉक्टरों का अभाव और मरीजों को बिना उपचार रेफर कर देने की प्रथा आज भी जस की तस मौजूद है। इसी तरह स्कूलों में शिक्षकों की कमी, कमजोर आधारभूत संरचना और गिरते शैक्षणिक परिणामों ने लोगों की उम्मीदें कम की हैं। ऐसे में मुख्य सवाल यह है कि जब चेहरे वही हैं, तो नीतियां और नतीजे कैसे बदलेंगे?
स्वास्थ्य विभाग की बात करें तो जिले और प्रमंडल स्तर के अस्पताल आज भी इलाज की बजाय “रेफरल सिस्टम” पर निर्भर हैं। सारण, सिवान, गोपालगंज समेत कई जिलों में आपात स्थिति में मरीजों को प्राथमिक इलाज भी बिना ही पटना या अन्य मेडिकल कॉलेजों में भेज दिया जाता है। मशीनें और भवन तो उपलब्ध कराए गए, लेकिन प्रशिक्षित डॉक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ और दवाओं का अभाव प्रणाली को अधूरा बनाता है। पिछले कार्यकाल में सरकार ने मेडिकल शिक्षा और अस्पतालों में सुधार की बात कही थी, लेकिन लोगों का मानना है कि जमीन पर उसका असर सीमित रहा।
इसी तरह शिक्षा विभाग भी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है। शिक्षक नियुक्ति की प्रक्रिया वर्षों तक विवादों में रही। स्कूलों में आधारभूत सुविधाओं का अभाव, लाइब्रेरी-लैब जैसी सुविधाओं का न होना और परीक्षा परिणामों में लगातार गिरावट एक बड़ी चिंता है। सरकार भले दावा करे कि 2025–30 के कार्यकाल में शिक्षा को प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन शिक्षक संगठन और विशेषज्ञों का कहना है कि बदलाव केवल घोषणाओं से नहीं, बल्कि कठोर प्रशासनिक सुधार और पारदर्शिता से आएगा।






















