नई दिल्ली : भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर जोर देते हुए कार्यपालिका पर तीखे सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि जजों को स्वतंत्र रहना बेहद जरूरी है और कॉलेजियम व्यवस्था की आलोचना के बावजूद इसके विकल्प को न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं अपनाया जा सकता। यह बयान ऐसे समय में आया है जब सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच कॉलेजियम सिस्टम को लेकर तनावपूर्ण रिश्ते चर्चा में हैं।
सीजेआई गवई ने यूके सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में ‘न्यायिक वैधता और जन विश्वास बनाए रखना’ विषय पर बोलते हुए यह बात कही। इस सम्मेलन में भारत के न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, इंग्लैंड और वेल्स की लेडी चीफ जस्टिस बैरोनेस कैर और यूके सुप्रीम कोर्ट के जज जॉर्ज लेगाट भी शामिल थे।
उन्होंने इतिहास का हवाला देते हुए बताया कि जब तक जजों की नियुक्ति का अंतिम अधिकार कार्यपालिका के पास था, तब कई बार गलत निर्णय लिए गए। उन्होंने उदाहरण दिया कि 1964 में न्यायमूर्ति सैयद जफर इमाम को खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने उनकी जगह न्यायमूर्ति पीबी गजेंद्रगढ़कर को यह पद सौंपा। इसी तरह, 1977 में इंदिरा गांधी सरकार ने एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला मामले में फैसले के बाद न्यायमूर्ति हंस राज खन्ना को मुख्य न्यायाधीश बनने से रोक दिया, क्योंकि उन्होंने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के खिलाफ फैसला सुनाया था।
सीजेआई गवई ने कॉलेजियम सिस्टम का बचाव करते हुए कहा कि 1993 और 1998 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों ने इस प्रणाली को स्थापित किया, जिसके तहत सीजेआई और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जज नियुक्तियों की सिफारिश करते हैं। उन्होंने 2015 के उस फैसले का भी जिक्र किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को असंवैधानिक घोषित कर दिया था, क्योंकि यह कार्यपालिका को अधिक शक्ति देता था और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता था।
सीजेआई ने कहा कि न्यायपालिका के पास स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा का अधिकार होना चाहिए ताकि यह तय किया जा सके कि कोई कानून या सरकारी कार्य संविधान के अनुरूप है या नहीं। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि रिटायरमेंट के बाद जजों द्वारा सरकारी पद स्वीकार करना या चुनाव लड़ना नैतिक सवाल खड़े करता है, क्योंकि इससे यह शंका पैदा होती है कि फैसले भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं से प्रभावित हो सकते हैं।
गवई ने बताया कि उन्होंने और उनके कई साथियों ने सार्वजनिक रूप से संकल्प लिया है कि वे रिटायरमेंट के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार नहीं करेंगे, ताकि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता बनी रहे।
हाल के दिनों में कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनाव बढ़ा है। जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े ‘कैश एट होम स्कैंडल’ के बाद एनजेएसी को फिर से लागू करने की मांग तेज हो गई है, जो कार्यपालिका को नियुक्तियों में अधिक भूमिका देता है। हालांकि, सीजेआई गवई ने साफ किया कि न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के आरोपों पर त्वरित कार्रवाई की जरूरत है, लेकिन यह सब न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए होना चाहिए।
सीजेआई बीआर गवई, जो मई 2025 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, इससे पहले आर्टिकल 370 को रद्द करने के ऐतिहासिक फैसले में शामिल रहे हैं। उनकी यह टिप्पणी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच चल रहे टकराव को और उजागर करती है।