“परवेज़ रसूल” वह खिलाड़ी जिसने टीम बनाई, लेकिन टीम में जगह नहीं पा सका। भारत की क्रिकेट व्यवस्था में प्रतिभा और राजनीति का संघर्ष कोई नया नहीं। परवेज़ रसूल जम्मू-कश्मीर की वादियों में जन्मा वो नाम, जिसने रणजी ट्रॉफी के मैदानों पर अपने दम पर इतिहास लिखा, मगर जिसे भारतीय क्रिकेट ने उतनी जगह नहीं दी, जितनी उसकी काबिलियत की हकदार थी। रसूल ने जम्मू-कश्मीर की रणजी टीम को “प्रतिस्पर्धी” बनाया। यह मामूली उपलब्धि नहीं थी। जिस टीम को कभी कमजोर माना जाता था, उसे इस खिलाड़ी ने अपने ऑलराउंड प्रदर्शन से जीत का माद्दा दिया।
चार दिवसीय (प्रथम श्रेणी) क्रिकेट
91 मैचों में लगभग 5,294 रन, बल्लेबाज़ी औसत 38.08, 12 शतक और 20 अर्धशतक, सर्वोच्च स्कोर 182।
गेंदबाज़ी में 332 विकेट, औसत 26.81, और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 8/85 — यह किसी साधारण खिलाड़ी की कहानी नहीं, यह तो एक “परफेक्ट ऑलराउंडर” का रिकॉर्ड है।
एक दिवसीय (List A) क्रिकेट
159 मैचों में 3,807 रन, औसत 33.39, सर्वोच्च 118।
गेंद से 204 विकेट, औसत 28.78, सर्वश्रेष्ठ 5/29।
यानी बल्ला और गेंद — दोनों ही मोर्चों पर संतुलित और स्थायी प्रदर्शन।
टी20 क्रिकेट
71 मैचों में 840 रन, औसत 19.53, सर्वोच्च स्कोर 59।
गेंद से 60 विकेट, औसत 27.75, और सर्वश्रेष्ठ 3/17।
सीमित ओवरों में भी रसूल ने अपनी उपयोगिता साबित की मगर शायद “जोन” या “लॉबी” की राजनीति यहां भी भारी पड़ी। भारतीय क्रिकेट में यह सिलसिला आम है कुछ नामों को बार-बार मौके मिलते हैं, चाहे फॉर्म हो या न हो और कुछ को बस एक या दो मैचों में परखा जाता है, फिर भुला दिया जाता है। परवेज़ रसूल ने भारत के लिए एक वनडे और एक टी20 खेला, फिर उन्हें कभी दोबारा मौका नहीं मिला। कितने ही खिलाड़ी ऐसे हैं जिन्हें लगातार असफलताओं के बावजूद मौके दिए गए और बाद में वही “स्थापित सितारे” कहलाए। पर रसूल के लिए शायद इतना काफी था कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर की पहचान को क्रिकेट मानचित्र पर दर्ज किया।
उन्होंने कभी शिकायत नहीं की, कोई विवाद नहीं उठाया बस अपने प्रदर्शन से बोलते रहे। पर अफसोस, भारतीय क्रिकेट की चयन प्रक्रिया शायद आंकड़े नहीं, “पहचान” देखती है। आज जब कोई क्रिकेट प्रेमी उनसे जुड़ी यह कहानी सुनता है, तो उसे यह सोचकर हैरानी होती है कि क्या इस देश में प्रतिभा के लिए सिर्फ रन और विकेट काफी नहीं हैं? क्या आपको किसी “मजबूत लॉबी” की भी ज़रूरत है?
रसूल की कहानी उस हर खिलाड़ी की कहानी है जिसे “सिस्टम” ने पहचानने में देर कर दी। वह खेलता रहा, जीतता रहा, पर टीम इंडिया की जर्सी में उसका नाम बस दो मैचों तक ही सीमित रह गया। अगर कभी भारतीय क्रिकेट की आत्मा से पूछा जाए कि उसका सबसे बदकिस्मत सपूत कौन है, तो शायद उसकी आंखों से यही नाम झर पड़ेगा। उन्होंने यह लंबा सफर तय किया, घरेलू रणजी से लेकर भारत की जर्सी तक और 20 अक्टूबर 2025 को उन्होंने क्रिकेट के सभी प्रारूपों से #संन्यास लेने की घोषणा की। यह केवल एक खिलाड़ी की विदाई नहीं है, बल्कि एक उस सांकेतिक यात्रा का अंत है जहाँ एक राज्य-प्रतिनिधि ने अपने दम पर मैदान पर आवाज़ बनाई, पर मंच पर उसका स्थान सीमित रहा।
(लेख- मो. हेसामुद्दीन अंसारी)