बिहार की सियासत में एक नया नाटक शुक्रवार को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में मंचित हुआ। पर्दे पर थे ‘चुनाव रणनीतिकार से नेता’ बने प्रशांत किशोर, और पृष्ठभूमि में थी जन सुराज की बहुचर्चित पहली रैली। लेकिन यह रैली जहां PK के समर्थकों के लिए ‘जन-लहर’ का प्रतीक बनने वाली थी, वहीं विरोधियों के लिए यह महज़ एक ‘फ्लॉप शो’ बनकर रह गई।
जन सुराज ने दावा किया कि पांच लाख लोगों की भीड़ गांधी मैदान में जुटेगी। मैदान में बड़े-बड़े पोस्टर, झिलमिल मंच, और गीत-संगीत से सजी तैयारियों के बीच पीके ने एक घंटे की देरी से मंच पर कदम रखा। उन्होंने आते ही प्रशासन पर आरोप लगाया कि “दो लाख लोग रास्ते में फंसे हैं, रोड जाम है, प्रशासन मदद नहीं कर रहा”। मगर इसी बीच भीड़ का आकलन शुरू हुआ—और यहीं से उठा तूफान।
भीड़ का गणित और सियासत की चालें
भले ही PK का दावा था कि भीड़ रोड पर अटकी है, मगर विपक्ष ने उनकी बातों को एक ‘मैनेजमेंट ड्रामा’ करार दिया। बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने कटाक्ष करते हुए कहा कि “अब इनका नाम प्रशांत किशोर नहीं, पैसा किशोर होना चाहिए। करोड़ों खर्च हुए, लेकिन मैदान में पहुंचे सिर्फ 20 से 30 हजार लोग।”
बीजेपी प्रवक्ता प्रभाकर मिश्रा ने इसे “बिहार बदलाव रैली नहीं, बदहाल रैली” बताते हुए कहा कि हजारों कुर्सियां खाली रहीं, और कुछ तो ट्रकों से उतारी भी नहीं गईं।
राजद ने भी पीछे नहीं हटते हुए कहा कि जनता ने पीके को उनकी “वोटकटवा” वाली हैसियत भी नहीं दी। राजद के मृत्युंजय तिवारी ने कहा, “कल के नज़ारे ने बता दिया कि पीके की औकात क्या है।” प्रवक्ता एजाज अहमद ने तो तंज कसते हुए कहा कि “खाली कुर्सियों के सहारे सत्ता का सपना मत देखिए, बिहार का जनमानस मैनेजमेंट से नहीं चलता।”
राजनीतिक प्रयोगशाला में PK की अग्निपरीक्षा
प्रशांत किशोर, जिन्होंने कभी चुनावी रणनीति से कई नेताओं की नैया पार लगाई, अब खुद सियासी समंदर में उतर चुके हैं। लेकिन यह समंदर सिर्फ रणनीति नहीं, जनविश्वास भी मांगता है। और पटना की रैली ने यह साफ कर दिया कि बिहार की राजनीति में सिर्फ भीड़ जुटाना ही काफी नहीं है — यह जनता की भावना को समझने का खेल है।
तो क्या यह रैली प्रशांत किशोर की राजनीति का ट्रेलर थी या क्लाइमेक्स?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह रैली जन सुराज की वास्तविक परीक्षा थी — और परिणाम मिश्रित हैं। एक ओर PK को मीडिया और विरोधियों के तीखे हमलों का सामना करना पड़ा, तो दूसरी ओर एक नए राजनीतिक विकल्प की सुगबुगाहट भी सुनाई दी।
अब देखना यह है कि प्रशांत किशोर इस आलोचना को अवसर में बदलते हैं या फिर बिहार की राजनीति में उनकी एंट्री एक शोर-शराबे तक ही सीमित रह जाती है।