[Team insider] रांची रेलवे स्टेशन के करीब विशाल हाते में कायम योगदा सत्संग और देश दुनिया को योग-क्रिया योग को सहज रूप में पेश करने वाले आध्यात्मिक गुरू योगदानंद यूं ही दुनिया के योग गुरू नहीं बने। उनके पीछे उनके गुरू स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी का हाथा था। जिनकी आज 168 वीं जयंती है। मंजु गुप्ता लिखती हैं कि कठोर शिष्य परंपरा के वाहक श्रीयुक्तेश्वरजी ने मानव जाति के कल्याण के लिए अपने प्रिय शिष्य श्री श्री परमहंस योगानन्द, को आध्यात्मिक संगठन बनाने के लिए उत्प्रेरित किया। उनकी आज्ञापालन करने केलिए योगानन्दजी ने अपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त किए गए मुक्तिदायक सत्यों को वितरित करने के उद्देश्य से पूर्व में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया तथा पश्चिम में सेल्फ़ रियलाईज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की, जिनमें पंजीकरण कराकर इच्छुक भक्त ध्यान की उच्चतम प्रविधि, क्रियायोग को सीख सकते हैं।
भविष्य सूचक संकेत कभी मिथ्या सिद्ध नहीं होते थे
योगनन्दा जी मितभाषी, आडंबरहीन और गंभीर थे। उनका मौन रहना उनकी अनंत ब्रह्म की गहन अनुभूति के कारण था। किन्तु वे कभी भी अपनी ईश्वरानुभूतियों और दिव्य अंतर्दृष्टि से चमत्कार प्रदर्शन नहीं करते थे। वे ऐसा नहीं कहते थे – “मैं भविष्यवाणी करता हूं कि अमुक अमुक घटना घटेगी…” वे मात्र संकेत देते थे और उनके वे भविष्य सूचक संकेत कभी मिथ्या सिद्ध नहीं होते थे।
उनकी ओर से एक सूक्ष्म विद्युत धारा प्रवाहित होती थी
योगी कथामृत में ‘अपने गुरु के आश्रम की कालावधि’ नामक पाठ में योगानन्दजी बताते हैं,” श्रीयुक्तेश्वरजी के पवित्र चरणों का स्पर्श करते समय मैं सदा ही रोमांचित हो उठता था…उनकी ओर से एक सूक्ष्म विद्युत धारा प्रवाहित होती थी।…मैं जब भी अपने गुरु के चरणों पर माथा टेकता था, मेरा सम्पूर्ण शरीर जैसे एक मुक्तिप्रदायक तेज से भर जाता था।“
उनका अन्तर्ज्ञान अंतर्भेदी था। साथ ही साथ वे अपने शिष्यों व आश्रम में आने वालो के विचारों को पढ सकते थे किन्तु उन्होंने अपनी इस दिव्य शक्ति का प्रयोग उनके विचारों की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करने के लिए कदापि नहीं किया।
मनुष्य को अपने विचारों में गुप्त रूप से विचरण करने का स्वाभाविक अधिकार है
वे कहते थे,” मनुष्य को अपने विचारों में गुप्त रूप से विचरण करने का स्वाभाविक अधिकार है। बिना बुलाये तो वहां भगवान भी प्रवेश नहीं करते; न ही मैं वह हिम्मत कर सकता हूं।
जिनकी प्रेरणा और आशीष ये योगानंदजी ने इस मुकाम को पाया वे गुरू स्वामी श्रीयुक्तेश्वर, बंगाल के श्रीरामपुर शहर के एक साधारण से आश्रम में रहने वाले ऐसे संत थे जो मर्त्य जगत् में जन्म लेकर भी सृष्टि के नियंता के साथ एक थे। उनमें अपने ग्रहणशील शिष्यों को ईश्वर-प्राप्त संत के रूप में रूपांतरित करने की शक्ति विद्यमान थी।
बचपन का नाम प्रियनाथ कड़ार था
इनका जन्म श्रीरामपुर, कलकत्ता में 10 मई 1855 को एक धनवान व्यापारी परिवार में हुआ था। इनका बचपन का नाम प्रियनाथ कड़ार था। स्कूली पढ़ाई इन्हें बहुत उथली और धीमी प्रतीत होती थी। इन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश तो अवश्य किया किन्तु शीघ्र ही पत्नी के देहांत के पश्चात संन्यास ग्रहण कर श्रीयुक्तेश्वर कहलाए। इनके गुरु लाहिड़ी महाशय थे।
अपने शिष्यों के प्रति नरमी नहीं बरतते थे
मुखमंडल पर प्रत्यक्ष होने वाली अनुशासनप्रियता उनके व्यवहार में भी विद्यमान थी। वे अपने शिष्यों के प्रति नरमी नहीं बरतते थे। शिष्यों की अन्यमनस्कता, विषण्णता और शिष्टाचार के साधारण नियमों का पालन न करने पर वे उन्हें डांट फटकार सुनाते। यही कारण है कि उनके शिष्यों की संख्या सदा थोड़ी ही रहती थी। वे कहते थे, “मैं केवल कठोरता की अग्नि में ही तपाकर शुद्ध करने का प्रयास करता हूं।“ तथापि उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे अपने शिष्यों को बिना किसी अपेक्षा के बहुत प्रेम करते थे। वे केवल उनका योगक्षेम चाहते थे।
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उच्चतम कोटि के इन ईश्वर-प्राप्त संत के विषय में और अधिक जानने की लालसा को तृप्त करने के लिए, पाठक परमहंस योगानन्दजी द्वारा रचित ‘योगी कथामृत’ के पृष्ठों का अनावरण करें तो उन्हें निश्चय ही लाभ होगा।