Loksabha By Election 2022 in Uttar Pradesh: देश के सबसे बड़े उत्तर प्रदेश को गढ़ों का प्रदेश भी कहा जाता है। यहां पर सियासी रजवाड़े खासे चर्चित रहे हैं। अगर आप 2014 के पहले की राजनीति को देखेंगे तो आपको साफ तौर पर दिखेगा कि गढ़ों की राजनीति में सेंधमारी से हर पार्टी बचने की कोशिश करती रही है। लेकिन, अब स्थिति बदल गई है।
बदल गई स्थिति
जिस प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हों, वहां पर सियासी समीकरण साधने की कोशिश हर दल करता नजर आएगा। लेकिन क्या यह पहले था? क्या यूपी की सियासत पहले आसान थी, या अब उस सियासी जमीन पर नए समीकरण रचने और गढ़ने की कोशिश की जा रही है। जमीनी हकीकत ये है कि निश्चित तौर पर पहले उत्तर प्रदेश की राजनीति अब के मुकाबले आसान थी। गढ़ों में होने वाली राजनीति पर कोई अपनी नजर डालने की कोशिश तक नहीं करता था। अब स्थिति बदल गई है। चुनौतियां हर जगह हैं। लोगों को नाम वाला नहीं, काम वाला नेता चाहिए।
मंडल के बाद बदल गया UP
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव को उत्तर प्रदेश की राजनीति का अहम पड़ाव मानें तो यूपी की राजनीति को तीन भागों में बांटकर देख सकते हैं। मंडल कमीशन से पहले का उत्तर प्रदेश, मंडल कमीशन के बाद का यूपी और 2014 का यूपी। मंडल कमीशन के पहले के उत्तर प्रदेश में जेपी आंदोलन के प्रभाव को छोड़ दें तो सियासत की धुरी कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही घूमती दिखती है। अमेठी, रायबरेली, इलाहाबाद से लेकर फूलपुर तक कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। लेकिन, मंडल के बाद के यूपी में सबकुछ बदल गया।
सबका अपना समीकरण
कांशीराम 1982 से ही बहुजन की राजनीति को आगे बढ़ाने की राजनीति करते आ रहे थे। मुलायम सिंह यादव ने 90 के दशक के शुरुआत में ओबीसी, मुस्लिम समीकरण को मिलाकर सियासत की एक नई लकीर खींचने की कोशिश की। भाजपा ने जब कल्याण सिंह को आगे किया तो मुलायम की राजनीति गड़बड़ाई और ओबीसी के एक बड़े भाग यादव और मुस्लिम को साधकर उन्होंने माय समीकरण की नींव रख दी। राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विवाद के बाद से यूपी की राजनीति में बदलाव आता दिखा।
क्षत्रपों की चमकी राजनीति
बदलाव कभी एक दिन में नहीं होता। लोकसभा चुनावों में भाजपा को यूपी ने 90 के दशक के आखिर में खासा समर्थन दिया, लेकिन 1988 में बनी पार्टी कांग्रेस और दलों की रणनीति के फेर में अपने मूल मुद्दों से भटकती और अटकती रही। सहयोगी दलों के साथ छोड़ने और मुद्दों पर मुंह फेरने से राम मंदिर मुद्दा हो या फिर संघ की ओर से उठाए गए मुद्दे गौण पड़ते दिखे। इस दौरान क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति खूब चमकी। मुलायम सिंह यादव और मायावती ने अपना-अपना गढ़ बनाया। समीकरणों के सहारे जीत की इबारत लिखी गई।
अलग अलग गठजोड़
मुलायम की माय समीकरण के जवाब में 2007 में जब मायावती बीबीएम समीकरण लेकर आई तो सत्ता पाई। मायावती ने पहली बार बहुजन समाज को ब्राह्मण के साथ जोड़ा। मुस्लिमों को साथ लिया और पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन, 2012 में एक बार फिर माय समीकरण चमका। मुलायम के नेतृत्व में हुए चुनाव के बाद अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनकर निकले। लेकिन, असली राजनीतिक बदलाव 2014 में शुरू हुआ। वर्ष 2013 में गोवा के भाजपा अधिवेशन में गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2014 का चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। बिहार में एनडीए में इसको लेकर विरोध हुआ और पुराने सहयोगी नीतीश कुमार गठबंधन से बाहर हो गए।
UP में ध्वस्त होते पुराने समीकरण
लेकिन, असली खेल यूपी में शुरू हुआ। माय और बीबीएम समीकरणों के सहारे सत्ता हासिल करने वाली सपा और बसपा के सामने नई भाजपा थी। मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला इसलिए लिया कि 1991 में पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ओबीसी की राजनीति के दम पर ही सत्ता में आई थी। भाजपा का सवर्ण वोट बैंक का सहयोग मिल ही रहा था। इसमें ओबीसी का तड़का लगा। लोकसभा चुनाव 2014 में यूपी में अखिलेश सरकार रहने के बाद भी भाजपा प्रदेश की 80 में से 71 सीटों पर जीती। दो सीटों पर एनडीए के सहयोगी जीते। सत्ताधारी सपा के पाले में महज 5 सीटें आईं। कांग्रेस 2 पर सिमटी। बसपा के खाते में शून्य बटे सन्नाटा रहा। यह यूपी की राजनीति का टर्निंग प्वाइंट था।
2017 में कई किले ध्वस्त
माहौल बदला, समीकरण बदले तो रणनीति भी बदल गई। यूपी चुनाव 2017 में अखिलेश को कुर्सी बचानी थी और सामने मोदी का चेहरा था। चुनाव हुआ तो भाजपा के नेतृत्व में एनडीए मोदी नाम पर 403 में से 325 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब हो गई। कई किले ध्वस्त हुए। इस चुनाव में अखिलेश यादव ने राहुल गांधी के साथ समर्थन कर दो लड़कों की जोड़ी बनाई, लेकिन सियासत की दो गढ़ों को यूपी ने नकार दिया। किलों के ढहने का सिलसिला जो शुरू हुआ, वह 2019 में भी नहीं रुका। न कांग्रेस का किला अब सुरक्षित है। न मुलायम किसी भी सीट को अपना गढ़ मान सकते हैं। न ही मायावती अपने जनाधार को बरकरार रख पाने में कामयाब रही। भाजपा की किलों को ढाहने की रणनीति का शिकार यूपी में हर राजनीतिक दल हुआ है।
गांधी के गढ़ में सेंध
लोकसभा चुनाव 2019 में कई किलों पर भगवा फहराया। इसमें गांधी परिवार का सबसे मजबूत किला अमेठी था। वर्ष 2014 में स्मृति ईरानी यहां से चुनावी मैदान में उतरी थीं, लेकिन उन्होंने टक्कर दी और एक लाख से कुछ अधिक वोटों के अंतर से वे चुनाव हारीं। लेकिन, 2019 के चुनाव में उन्होंने गांधी परिवार के इस गढ़ को ढाह दिया। भाजपा यहां से चुनाव जीती। राहुल गांधी अगर केरल के वायनाड सीट से चुनावी मैदान में न उतरे होते तो उनकी मुश्किलें बढ़ी होती। कांग्रेस इस चुनाव में केवल रायबरेली सीट बचा पाई। यहां से सोनिया गांधी जीतीं। 2019 में सपा के गढ़ कन्नौज से डिंपल यादव चुनाव हारीं। अक्षय यादव, शिवपाल यादव भी हारे। मायावती ने भले ही इस चुनाव में 10 सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन इसका पूरा क्रेडिट सपा-बसपा गठबंधन को दिया जाता है। सपा तो 2014 के परिणाम से एक कदम आगे तक नहीं बढ़ पाई। पांच सीटों पर जीत मिली। एनडीए 64 सीटें जीतने में कामयाब रहा।
SP के लिए मुश्किलें बढ़ीं
यूपी चुनाव 2022 काफी अहम रहा। सपा ने भले 111 सीटें जीतीं, लेकिन वह तो सत्ता की रेस में थी। जीत के दावे अखिलेश की ओर से किए जा रहे थे। वहीं, भाजपा का पूरा ध्यान किलों को ढाहने पर था। अखिलेश करहल सीट से खड़े हुए तो भाजपा ने वहां भी उन्हें नहीं छोड़ा। केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल चुनावी मैदान में उतार दिए गए। बघेल के चुनाव में उतरते ही करहल का रण एकतरफा नहीं रहा। किला नहीं रहा। 82 वर्षीय बीमार मुलायम सिंह यादव को अखिलेश के लिए प्रचार के मैदान में उतरना पड़ा। भाजपा ने कांग्रेस के मजबूत किले रायबरेली में सेंध लगाई। पहली बार रायबरेली सदर सीट भाजपा के पाले में आई। और अब आजमगढ़। मुलायम के भतीजे और अखिलेश के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव चुनावी मैदान में परिवार की विरासत बचाने के लिए खड़े थे।
आजमगढ़ भी गया
आजमगढ़ को सपा का गढ़ कहा जाता रहा है। यहां पर सपा ने रमाकांत यादव को उम्मीदवार बनाया। रमाकांत यादव सपा में रहे और मुलायम के करीबी माने गए। यही कारण रहा कि वे जहां गए, जीते। 2009 में भाजपा के टिकट पर भी। लेकिन, यह सीट भाजपा की कभी नहीं रही। यूपी चुनाव में जिले की सभी 10 विधानसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी का कब्जा था। 2014 की मोदी लहर और 2019 के मोदी-योगी लहर में भी इस सीट पर सपा जीती। मुलायम परिवार की विरासत को धर्मेंद्र यादव संभाल नहीं पाए। 2019 की हार के बाद लगातार दूसरी बार चुनावी मैदान में उतरे भाजपा के दिनेश लाल यादव निरहुआ ने जीत का परचम लहराकर साफ कर दिया, आजमगढ़ अब सपा का गढ़ नहीं रहा। भाजपा ऐसे गढ़ों को अब अपना बनाने की कोशिश में है, चाहे वह किसी का हो। यही राजनीति में बड़ा बदलाव है, जिसे अब तक गढ़ मानने वाले नेता समझ नहीं पा रहे हैं।