रूस और यूक्रेन के मध्य चल रहे युद्ध के चलते अफ्रीकी देशों में भुखमरी की आशंका बढ़ती जा रही है। अनाज की आपूर्ति की स्थिति ख़राब होती जा रही है, जिससे पहले से ही गरीबी की मार झेल रहे अफ्रीकी देशों में अनाज के दाम ऊपर जाते हुए दिख रहे हैं। इससे वहां की जनता में घबराहट और परेशानी है। यूक्रेन के साथ-साथ रूसी अनाज निर्यात में भी काफी कमी आई है, जिसके कारण कुछ गरीब देशों खाद्य-असुरक्षा का सामना करना पर रहा है।
अफ्रीका में दुनियाभर की कुल अन-उपजाऊ जमीन का 65 प्रतिशत हिस्सा है तो ऐसी स्थिति में यह महाद्वीप लगभग पूरी तरह से खाध आयातक देशों का समूह है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी घटना क्रम, जिससे वैश्विक खाद्य कीमतों में वृद्धि होती है। इसका सीधा असर अफ्रीकी देशों पर पड़ता है और परिणामस्वरूप इन देशों में खाद्य असुरक्षा के साथ -साथ सामाजिक और राजनीतिक तनाव की भी सम्भावना बनने लगती है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार, अफ्रीका में खाद्य कीमतों में “2020-22 में औसतन 23.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो कि – 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से सबसे अधिक है। खाद्य सामग्रियों की कीमतों में हो रही लगातार वृद्धि का कई अफ्रीकी देशों पर बहुत विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। अफ्रीकी विकास बैंक (एएफडीबी) के अनुसार, अफ्रीकी देश सालाना 1100 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक अनाज आयात करने के लिए $ 75 बिलियन से अधिक खर्च करते हैं। 2020 में, 15 अफ्रीकी देशों ने रूसी संघ या यूक्रेन से अपने गेहूं उत्पादों का 50% से अधिक आयात किया। एएफडीबी के अनुसार रूस- यूक्रेन संघर्ष के कारण अफ्रीका महाद्वीप के देशों में लगभग 30 मिलियन टन अनाज की कमी होने की पूरी सम्भावना है और साथ ही अनाज दामों में भी लगातार बढ़ोतरी संभावित है।
रूस और यूक्रेन संघर्ष का दीर्घकालीन प्रभाव अफ्रीकी देशों पर पड़ता हुआ नजर आ रहा है। आर्थिक रूप से निर्भर इन देशों में इतनी क्षमता नहीं है कि ये अपने बलबूते पर अपने देश के लोगों का भरण -पोषण कर पाएं। ऐसे में आधारभूत अनाज जैसी खाद्य पदार्थ की कमी इन देशों के लिए किसी घोर आपदा से कम नही दिखती। युद्ध के चलते यूक्रेनी और रूसी अनाज की फसल में गिरावट आई है, जिसके परिणामस्वरूप अनाज की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। और इसका सीधा असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। वैसे तो इस विवाद का असर पूरे अफ्रीका में देखने को मिल रहा है। पर इसका सबसे ज्यादा असर उत्तरी अफ्रीकी देशों मिस्र और ट्यूनीशिया में सबसे अधिक है। क्योंकि यूक्रेन और रूस से अनाज आयात पर इनकी निर्भरता सबसे अधिक है। रवांडा, तंजानिया, मोजाम्बिक, केन्या या कैमरून जैसे आर्थिक रूप से कमजोर देशों पर असर बहुत ज्यादा नही है पर लम्बे समय में यहां भी प्रभाव दिख सकता है। क्योंकि इन देशों में पहली से ही खाद्य -सुरक्षा को लेकर स्थिति तनावपूर्ण है।
अनुमानों के अनुसार, मिस्र , ट्यूनीशिया और इथियोपिया में गेहूं के आयात में सबसे अधिक गिरावट आई है। गेहूं के लिए उच्चतम मूल्य वृद्धि केन्या, यूगांडा, ट्यूनीशिया और मोज़ाम्बिक अल्जीरिया और लीबिया में देखने को मिली है। रूस-यूक्रेन युद्ध अफ्रीका में रह रहे लाखों लोगों के लिए एक वास्तविक खतरा के रूप में नजर आ रहा है।
“इस संकट से एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि अफ्रीकी निर्णय-निर्माताओं को एकल आपूर्तिकर्ताओं पर अपने- अपने देशों की निर्भरता को कम करना चाहिए। भले ही इसके लिए उन्हें अधिक प्रयास और उच्च लगत की आपूर्ती करनी हो पर अपनी निर्भरता को कम करना इन देशों के लिए आवश्यक है।
रूस द्वारा अनाज पर निर्यात प्रतिबंध इन देशों की आबादी के कुछ हिस्सों के लिए गंभीर भूख का कारण बन सकता है। एक तरीका यह हो सकता है कि अनाज आयात की कमी को अन्य भोजन के साथ या अपने या व्यापार भागीदारों के उत्पादन में वृद्धि के माध्यम से ठीक करने की कोशिश की जाए। किसी भी देश के लोगों के लिए यदि भोजन किफायती नहीं होगा तो इसका सीधा असर देश के विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, बाल स्वास्थ्य, मृत्यु दर और शिक्षा में गिरावट, सामाजिक तनाव जैसे कई मुद्दे इसके साथ जुड़े हुए हैं।
तमाम आधारभूत आवश्यकताओं में से भोजन सबसे अहम् और आवश्यक है। इस तरह की स्थिति देश की राजनितिक और सामाजिक व्यवस्था में उथल- पुथल मचा सकती है। यह स्थिति कहीं ना कहीं पश्चिमी देशों के सरोकार से भी संबंधित है कि ऐसे देश जो आर्थिक रूप से संपन्न है और मानवाधिकार के मुद्दों पर मुखर होकर अपनी राय रखते हैं और साथ ही तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थान, जिनके जिम्मे दुनियाभर के आम लोगों की आवाज को ऊपर उठाना है। इन सभी को ऐसी स्थिति में इन अफ्रीकी देशों की मदद के लिए बिना किसी शर्त के आगे आना चाहिए।
(लेखिका सोनम झा दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के अंतर्गत सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज की शोधार्थी हैं)