Loksabha Election 2024 Political Scene: लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियां तमाम राजनीतिक दल अपने- अपने स्तर पर अपने- अपने क्षेत्र में कर रहे हैं। पिछले दिनों तीन बड़ी घटनाएं घटी हैं, जिनका देश की राजनीति पर असर पड़ता दिख रहा है। आइए, इन तीनों घटनाओं के जरिए विपक्ष की राजनीति में बदलाव या भटकाव की बात करते हैं।
2024 का महाभारत: BJP ने Congress को बनाया ‘दुर्योधन’, Nitish-Tejashwi बनाना चाह रहे ‘कर्ण’
Loksabha Election 2024: लोकसभा चुनाव 2014 इसको लेकर विपक्ष की राजनीति और रणनीति दोनों पर सवाल खड़े होने लगे हैं। अब देश चुनावी साल में प्रवेश करने वाला है, लेकिन विपक्ष की रणनीति क्या होगी? अभी तक स्पष्ट नहीं है। लगातार दो लोकसभा चुनाव से करारी हार झेल रहा विपक्ष एक बार फिर बिखरा ही दिख रही है। अगस्त 2022 में NDA से नाता तोड़कर महागठबंधन के साथ मिलने वाले Nitish Kuamr अकुलाए हुए हैं। यूपी चुनाव 2022 में करारी हार के बाद अखिलेश यादव बौखलाए हुए हैं। वहीं, पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह छिन जाने के बाद उद्धव ठाकरे उलझन में फंसे हैं। कांग्रेस एक बार फिर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर लांच करने की तैयारी कर रही है। वहीं, विपक्ष के अन्य दल एक धुरी पर आते नहीं दिख रहे। ऐसे में विपक्षी वोटों का बिखराव सीधे तौर पर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में जाता दिख रहा है।
नीतीश की बौखलाहट का कारण क्या?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मौजूद थे। कार्यक्रम में कांग्रेस के सीनियर नेता भी मौजूद थे। कार्यक्रम था तो निश्चित तौर पर भीड़ होगी और भीड़ होगी तो उसमें तरह-तरह के सोच को रखने वाले भी होंगे। मौका था, और मौके का फायदा उठाना नीतीश कुमार से बेहतर और कोई नहीं जानता है। मौके पर चौका लगाते हुए नीतीश कुमार ने कांग्रेस को लेकर स्थिति साफ करने की बात कह डाली। उन्होंने कहा कि एक मंच पर आइए बैठिए बात कीजिए। कहां, कौन, किसके खिलाफ लड़ेगा, यह तय तो हो जाए।
अपने भाषण से नीतीश कुमार ने यह तो साफ कर दिया कि अभी तक विपक्ष एकजुट नहीं है। कांग्रेस अपनी अलग राजनीति कर रहा है और तीसरा मोर्चा अलग ही दिशा में जाता दिख रहा है। नीतीश कुमार ने तमाम राजनीतिक दलों को एक साथ लाकर अगस्त 2022 में भारतीय जनता पार्टी को पछाड़ने का जो फॉर्मूला दिया था, उसे पूरे देश में लागू करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। लेकिन, उनकी कोई सुन कोई नहीं रहा है। यही हकीकत है। और हकीकत खुद नीतीश कुमार ने बयां की है।
नीतीश कुमार जब अगस्त 2022 में पाला बदलकर एनडीए से महागठबंधन की तरफ आए थे, तब 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने की बात खासी चर्चा में रही थी। राजद का समर्थन हासिल था। लेकिन, राजद कांग्रेस का भी समर्थन करती है। कांग्रेस राहुल गांधी के पीछे खड़ी दिख रही है। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर चुके हैं। भारत को जोड़कर वे कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की कोशिश करते दिख रहे हैं। ऐसे में वह पार्टी का सर्वमान्य चेहरा तो बन ही गए हैं। ऐसे में कांग्रेस नीतीश कुमार को आगे करके चुनावी मैदान में उतरेगी, ऐसा संभव नहीं दिख रहा। नीतीश कुमार की अकुलाहट का सबसे बड़ा कारण यही माना जा रहा है। जिस उद्देश्य से उन्होंने एनडीए का दामन छोड़ा था, वह पूरा होता हाल-फिलहाल तो नहीं ही दिख रहा है।
अखिलेश की बौखलाहट अलग
उत्तर प्रदेश में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने परिवर्तन रथ यात्रा के जरिए भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ा चेहरा बना दिया। प्रदेश की राजनीति में अहम भागीदार रहने वाली बसपा पीछे छूट गई। लेकिन, भाजपा और सपा के बीच आमने-सामने के मुकाबले में समाजवादी पार्टी बहुमत के आंकड़े से कोसों पीछे छूट गई। अखिलेश यादव जानते हैं कि भाजपा के साथ ओबीसी वोट बैंक सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। यह जब तक टूटेगा नहीं, तब तक लखनऊ की सत्ता, या फिर दिल्ली के किले में सेंधमारी मुश्किल है। स्वामी प्रसाद मौर्य को आगे करके श्रीरामचरितमानस का मुद्दा उठाकर दलित- ओबीसी के एक बड़े वोट बैंक को तोड़ने- काटने की कोशिश चल रही है। इन सबके बीच अखिलेश यादव का अपना यादव समाज, जो रामचरितमानस, भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण में गहरी आस्था रखता है। उसको जोड़े रखने के लिए अखिलेश मंदिर- मंदिर घूम रहे हैं।
अखिलेश यादव ब्राह्मण और राजपूत वोट बैंक को साधने का प्रयास भी कर रहे हैं। लेकिन, स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ टिप्पणी करने वाली ऋचा सिंह और रोली तिवारी मिश्रा को पार्टी से बाहर भी कर दे रहे हैं। इन तमाम गतिरोध के बीच अखिलेश की रणनीति और राजनीति दोनों उलटती- पलटती दिख रही है। M-Y समीकरण को बरकरार रखने और उसमें अन्य जातियों के वोट को जोड़ने की कोशिश में वे कई प्रयोग करते दिख रहे हैं, जो उन पर ही भारी पड़ सकता है। उनकी बौखलाहट का सबसे बड़ा कारण यही माना जा रहा है।
महाराष्ट्र में उद्धव को झटका
बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को थामे उद्धव ठाकरे ने लगातार बैक डोर पॉलिटिक्स की। किंगमेकर की भूमिका में रहे। लेकिन, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद मन में किंग बनने की इच्छा जागी। भाजपा का साथ छोड़ा। मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन, हार्ड मराठा पॉलिटिक्स के लिए जानी जाने वाली शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की राजनीति के साथ सॉफ्ट होती चली गई। इसका प्रदेश की राजनीति पर असर दिखने लगा। उद्धव तो सरकार में खुश थे, लेकिन साथी शिवसैनिक नाराज। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बगावत हुई। पार्टी टूटी और भाजपा के साथ मिलकर सत्ता में आ गई। फिर शुरू हुआ पार्टी का विवाद।
बाला साहब ठाकरे की विरासत को लेकर आगे बढ़ने वाले उद्धव ठाकरे, शिवसेना और पार्टी के चुनाव चिन्ह तीर- कमान पर दावा करते रहे। एकनाथ शिंदे गुट ने इसे चुनाव आयोग में दावेदारी कर अपने पक्ष में कर लिया। अब उद्धव ठाकरे, बाला साहब ठाकरे की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन, उनके साथ कांग्रेस और एनसीपी खड़ी दिखती है। बाला साहब ठाकरे ने जिसका हमेशा विरोध किया। ऐसे में उनकी परेशानी आगे और बढ़ने ही वाली दिख रही है।