बिहार की प्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा, जिन्हें “बिहार कोकिला” के नाम से जाना जाता है, का जीवन उनकी प्रतिभा, संघर्ष, और समर्पण का प्रतीक है। इस बार उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है। इससे पहले उन्हें पद्मश्री और पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। 1 अक्टूबर 1952 को सुपौल जिले के हुलास में जन्मीं शारदा सिन्हा ने अपनी शिक्षा बीएड और यूपी से संगीत में एमए तक पूरी की।
दुल्हन बनकर भी संगीत का प्रेम
शारदा सिन्हा के जीवन में संगीत का महत्व उनकी शादी के समय भी नजर आया। शादी के दौरान विदाई से ठीक पहले उनके पिता ने उनसे गीत गाने का आग्रह किया। दुल्हन बनीं शारदा वापस घर आईं और परिवार के बीच बैठकर ऐसा गीत गाया कि आंगन में बैठे सभी लोग विछोह के आंसू नहीं रोक पाए। इस क्षण ने उनके जीवन में संगीत के महत्व को और गहरा कर दिया।
भोजपुरी संगीत की क्रांति
शारदा सिन्हा ने 1974 में पहली बार भोजपुरी गीत गाया। 1978 में उनकी प्रस्तुति “उग हो सूरज देव” ने उन्हें खास पहचान दिलाई। इसके बाद 1989 में गाए गए गीत “कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया…” ने बॉलीवुड तक उन्हें ख्याति दिलाई। उन्होंने विवाह, छठ, जनेऊ, विदाई, और झिझिया जैसे पारंपरिक गीतों को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंचाया।
सम्मान और संघर्ष
शारदा सिन्हा को उनके योगदान के लिए कई बड़े पुरस्कार मिले:
- 1991: पद्मश्री
- 2000: संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
- 2006: राष्ट्रीय अहिल्या देवी पुरस्कार
- 2015: बिहार सरकार पुरस्कार
- 2018: पद्मभूषण
हालांकि, यह सफर हमेशा आसान नहीं रहा। एक बार कला-संस्कृति विभाग के अधिकारियों ने कार्यक्रम देने के बदले उनसे कमीशन की मांग की। शारदा ने इसे नकारते हुए साफ कहा कि “मैं पैसा देकर कार्यक्रम नहीं ले सकती।” मंत्री विनय बिहारी ने इस घटना पर सवाल उठाया और यह मामला मीडिया में सुर्खियों में रहा।
लोकगीतों की पहचान
शारदा सिन्हा ने न केवल बिहार और भोजपुरी क्षेत्र के लोकगीतों को जीवित रखा, बल्कि उन्हें विश्व पटल पर पहचान दिलाई। उनकी सादगी और संगीत के प्रति समर्पण ने उन्हें बिहार की संस्कृति का प्रतीक बना दिया है।
शारदा सिन्हा की कहानी हर उस कलाकार के लिए प्रेरणा है, जो अपनी कला के लिए लड़ाई लड़ने और उसे जन-जन तक पहुंचाने के सपने देखता है।