भारतीय राजनीति में परिवार का जिक्र नया नहीं है। परिवारवाद के आरोप लगभग सभी दलों पर लगे हैं और आगे भी लगते ही रहेंगे। परिवारवाद से राजनीतिक दल कतराते भी नहीं क्योंकि इसमें सफलता का प्रतिशत किसी दूसरे समीकरण से अधिक रहा है। एम करुणानिधि के बाद एमके स्टालिन, शिबू सोरेन के बाद हेमंत सोरेन, वाईएसआर रेड्डी के बाद जगनमोहन रेड्डी जैसे नेताओं का मुख्यमंत्री होना यह बताता है कि भारतीय राजनीति में बेटों ने सफलता हासिल की है। मुलायम सिंह यादव के बाद अखिलेश यादव, लालू यादव के बाद तेजस्वी यादव ने भी इस थ्योरी को सफल बताया है। लेकिन राजनीति में बेटों के साथ भतीजों का आना भी अनोखी बात नहीं है। इन दिनों महाराष्ट्र में चाचा शरद पवार और भतीजे अजित पवार के बीच का टकराव राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में बना हुआ है। अजित पवार ने बगावत कर अपने चाचा शरद पवार को चुनौती दी है। भारतीय राजनीति में चाचा-भतीजे का कॉम्बिनेशन भी खूब देखा गया है। हालांकि इस कॉम्बिनेशन में कई बार बगावत और खिलाफत भी दिख जाती है।
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शरद से कई बार हार कर अजित को मिली पहली जीत
शरद पवार ने जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया तो उनका मकसद महाराष्ट्र की सत्ता के साथ केंद्र की सत्ता भी थी। यह अलग बात है कि महाराष्ट्र के सबसे युवा सीएम रहे शरद पवार की पार्टी कभी भी महाराष्ट्र या केंद्र में सरकार की ड्राइविंग सीट पर नहीं बैठी। अपने समर्थन से सरकार चलाने वाली पार्टियों में शामिल रही एनसीपी के नेताओं को अच्छे पद भी मिले हैं। लेकिन शरद पवार की व्यापक राजनीतिक छवि उनके साथ चलने वाले भतीजे अजित पवार के लिए काफी नहीं रही। पार्टी में अजित पवार को कभी बड़ा पद नहीं दिया गया। वे डिसीजन मेकिंग प्रक्रिया का हिस्सा कभी नहीं रहे। महाराष्ट्र में जब एनसीपी के सहयोग से महाविकास अघाड़ी की सरकार थी, तब भी अजित पवार डिप्टी सीएम बने थे। हालांकि इससे पहले भी 2019 में अजित पवार ने यह प्रयास किया था। देवेंद्र फडणवीस ने तब भी उन्हें डिप्टी सीएम बनवाया था लेकिन तीन दिनों में ही वो सरकार गिर गई। अजित पवार को वापस शरद पवार की छांव में आना पड़ा था। लेकिन इस बार खेल आगे निकल गया है।
बाल ठाकरे की छवि से निकले राज ठाकरे कहीं नहीं पहुंचे
एक वक्त था जब महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की तूती बोलती थी। तब बाल ठाकरे के साथ साए की तरह रहे उनके भतीजे राज ठाकरे के मन में वारिस बनने की तमन्ना जागने लगी थी। लेकिन बाल ठाकरे ने ऐसा होने नहीं दिया। राज ठाकरे के बदले बाल ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। नाराज होकर राज ठाकरे ने अलग पार्टी बना ली। बाल ठाकरे की तरह राज ठाकरे ने भी दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के खिलाफ आंदोलन चलाने का प्रयास किया। लेकिन राज ठाकर को खास सफलता हाथ नहीं लगी। महाराष्ट्र की राजनीति में आज भी राज ठाकरे खास असर नहीं डाल सके हैं।
मायावती के बाद आकाश आनंद हैं बसपा के वारिस!
भतीजों में नया नाम उस आकाश आनंद का है जो बहुजन समाज पार्टी की मुखिया और यूपी की पूर्व सीएम मायावाती के भतीजे हैं। वैसे तो आकाश आनंद की अब तक की राजनीतिक गतिविधियां खास नहीं रही हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मायावती को आकाश पर भरोसा बढ़ रहा है। इस साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को ज़िम्मेदारी दी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी आकाश की सक्रियता दिखी थी लेकिन वो भी बड़े स्तर की नहीं थी।
अभिषेक बनर्जी हैं ममता के सबसे खास
पश्चिम बंगाल की राजनीति भी बुआ-भतीजे की संस्कृति में ढल रही है। भाजपा ने पश्चिम बंगाल की सीएम और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के कई खास लोगों को अपनी ओर मिला लिया है। शुभेंदु अधिकारी, मुकुल रॉय जैसे नाम कभी ममता बनर्जी के खास रहे थे। लेकिन भाजपा ने बारी बारी सबको अलग कर दिया। इसलिए ममता बनर्जी ने गैरों से बेहतर अपने परिवार पर भरोसा करने की शुरुआत कर दी। अब ममता बनर्जी का पूरा मैनेजमेंट अभिषेक बनर्जी के हाथ ही दिखता है।
गोपीनाथ मुंडे के बाद बेटी पंकजा पर भारी पड़े धनंजय
महाराष्ट्र में ही एक और चाचा भतीजे की जंग चलती रही है। हालांकि यह जंग तब शुरू हुई जब चाचा गोपीनाथ मुंडे का निधन हो गया। गोपीनाथ मुंडे की राजनीतिक वारिस को लेकर बेटी पंकजा मुंडे और भतीजे धनंजय मुंडे के बीच जंग शुरू हुई। पहली बार तो धनंजय को पटखनी देकर पंकजा मुंडे ने चुनाव जीता और मंत्री बन गईं। लेकिन दूसरी बार बाजी धनंजय के हाथ रही। वे विधायक भी बने और अभी अजित पवार गुट के साथ सरकार में शामिल होकर मंत्री भी बन गए हैं।