वर्ष 1853 में अयोध्या में राम मंदिर को हुए पहले हिंदू- मुस्लिम दंगों के बाद अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार बढ़ने लगे। देश में तनाव का माहौल था। इस घटना के ठीक चार साल बाद देश में पहली बार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया। मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना में शामिल हिंदू- मुस्लिम सिपाहियों ने गाय- सुअर की चर्बी के नाम पर बंदूक की गोली को मुंह से लगाने से इनकार कर दिया। सिपाही विद्रोह की आग में पहले उत्तर प्रदेश और फिर देश जलने लगा। लाहौर से लेकर दिल्ली तक सेना में खिलाफत शुरू हुआ। विद्रोह की इस चिंगारी ने देश में आजादी कसमसाहट पैदा की। देश में आजादी की चर्चा होने लगी। इस दरम्यान हिंदू- मुस्लिम का मुद्दा पीछे छूट गया। देश को आजाद कराने की जंग की शुरुआत हुई। 1857 से 1947 तक यानी 90 साल का वक्त लगा, जब विद्रोह की चिंगारी ने भभकती आग का रूप लेकर देश से अंग्रेजी शासन को समाप्त करा दिया। आजादी के ठीक दो साल अयोध्या एक बार फिर गरमाई।
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अचानक अयोध्या में उठा शोर
देश आजाद हो चुका था। धर्म के नाम पर देश के दो टुकड़े हो चुके थे। मुसलमानों को पाकिस्तान दिया गया। पाकिस्तान से इसके बाद से ही हिंदुओं पर अत्याचार की खबरें आने लगी। कुछ कच्ची, कुछ पक्की। इन खबरों के बीच हिंदुओं की महत्वाकांक्षा भी जोर पकड़ने लगी थी। वर्ष 1949 में कुछ ऐसा हुआ, जिसने अयोध्या समेत देश को गर्मा दिया। वह 22- 23 दिसंबर 1949 की रात थी। अचानक अयोध्या में खबर फैली कि बाबरी मस्जिद के गर्भगृह में रामलला प्रकट हो गए हैं। देखते ही देखते यह खबर आग की तरह फैल गई। चारों तरफ ‘भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी, हर्षित महतारी मुनि मनहारी अद्भुत रूप विचारी’ का पाठ होने लगा।
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अयोध्या में करीब 500 सालों से भये प्रकट कृपाला का पाठ होता रहा है। लेकिन, 23 दिसंबर 1949 की सुबह अयोध्या में इन चौपाइयों के मायने बदल गए थे। भोर होने से पहले से ही यह बात जंगल में लगी आग की तरह फैल रही थी कि भगवान राम प्रकट हो गए हैं। रघुकुल कुलभूषण बाल रूप में जन्मभूमि स्थान मंदिर के गर्भ-गृह में पधार चुके थे। भक्तगण ‘भये प्रगट कृपाला’ गा रहे थे। बाबरी मस्जिद के प्रांगण में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा हो चुकी थी। प्रभु श्रीराम के बालरूप के दर्शन के लिए वहां पर भारी भीड़ जमा थी। बस कह रहे थे, भगवान प्रकट हुए हैं।
जुटने लगी थी भीड़
अयोध्या थाने के एसएचओ रामदेव दुबे रूटीन जांच के लिए बाबरी मस्जिद परिसर के पास सुबह 7 बजे पहुंचे। प्रभु राम लला के प्रकट होने की सूचना पर तब तक सैंकड़ों लोग पहुंच चुके थे। दोपहर होते- होते यह भीड़ बढ़कर पांच हजार तक पहुंच गई। अयोध्या के आसपास के गांवों तक यह सूचना पहुंच चुकी थी। मंदिरों में शंख बजाए जा रहे थे। श्रद्धालुओं का हुजूम गांवों से निकलकर मस्जिद की तरफ टूट पड़ी। पुलिस और प्रशासन भीड़ को देखकर हैरान रह गई थी। भगवान राम किसी आम मंदिर में प्रकट नहीं हुए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम के बाल रूप रामलला की मूर्ति उस मस्जिद में प्रकट हुई थी, जिसे लोग बाबरी मस्जिद के नाम से जानते थे।
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बाबरी मस्जिद के बारे में आम कहानी थी कि भगवान राम के प्राचीन मंदिर को तोड़कर इसे बनाया गया था। मस्जिद रख-रखाव के अभाव में खंडहर होती जा रही थी। वह केवल शुक्रवार को खुलती थी। उस दिन जुमे की नमाज पढ़ी जाती थी। अन्य दिनों में यहां इक्का- दुक्का लोगों का ही आना- जाना होता था।
मस्जिद के बाहरी हिस्से में राम चबूतरा
बाबरी मस्जिद के बाहरी हिस्से में 21 फीट X 17 फीट का एक चबूतरा था। इसे राम चबूतरा कहा जाता था। इस राम चबूतरे पर भगवान राम के बालरूप की एक मूर्ति विराजमान थी। इनके दर्शन के लिए उस समय उतने ही लोग जुटते थे, जितने अयोध्या के किसी अन्य मंदिर, मठ या आश्रम में जुटते थे। रामलला के प्रकटीकरण ने पूरी स्थिति ही बदल दी। 23 दिसंबर 1949 की सुबह बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के ठीक नीचे वाले कमरे में वही मूर्ति प्रकट हुई थी, जो कई दशकों या सदियों से राम चबूतरे पर विराजमान थी। उनके लिए वहीं की सीता रसोई या कौशल्या रसोई में भोग बनता था। राम चबूतरा और सीता रसोई निर्मोही अखाड़ा के नियंत्रण में थी। इसी अखाड़े के साधु- संन्यासी वहां पर पूजा- पाठ और अन्य विधान करते थे।
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एफआईआर में पूरी कहानी
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपनी किताब ‘अयोध्याः 6 दिसंबर 1992’ में उस एफआईआर का विवरण दिया है, जो 23 दिसंबर 1949 की सुबह लिखी गई थी। एसएचओ रामदेव दुबे ने आईपीसी की धारा 147/ 448/ 295 के तहत एफआईआर दर्ज की थी। इसमें लिखा गया कि रात में 50- 60 लोग ताला तोड़कर और दीवार फांदकर मस्जिद में घुस गए। वहां उन्होंने श्री रामचंद्रजी की मूर्ति की स्थापना की। उन्होंने दीवार पर अंदर और बाहर गेरू और पीले रंग से ‘सीताराम’ आदि भी लिखा। उस समय ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल ने उन्हें ऐसा करने से मना किया, लेकिन उन्होंने उसकी बात नहीं सुनी। वहां तैनात पीएसी को भी बुलाया गया, लेकिन उस समय तक वे मंदिर में प्रवेश कर चुके थे।
घटना बढ़ते ही मचा हड़कंप
अयोध्या में घटी घटना ने देश भर में हड़कंप मचा दिया। घटना भले ही अयोध्या में घटी थी, लेकिन इसका असर पूरे देश पर पड़ना था। पहले बात लखनऊ तक पहुंची और फिर दिल्ली। हर तरफ अफरातफरी मच गई। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल थे। वहीं, यूपी में मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत और गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे। देश में संविधान लागू नहीं हुआ था। इसके बावजूद देश और राज्य की सरकार ने तय किया कि अयोध्या में जो हुआ, उचित नहीं हुआ। दोनों समुदायों की परस्पर सहमति या कोर्ट के आदेश से विवाद का हल निकले, इसे उचित माना गया। धोखे से किसी दूसरे समुदाय के पूजा- स्थल पर कब्जा कर लेने को सरकार ने ठीक नहीं माना। केंद्र और राज्य सरकार ने तय किया कि अयोध्या में पूर्व स्थिति बहाल की जाए।
सरकार का आदेश मानने से डीएम का इनकार
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय ने फैजाबाद के जिलाधिकारी एवं उपायुक्त केकेके नायर को लिखित आदेश दिया कि अयोध्या में पूर्व स्थिति बहाल की जाए। इस आदेश के तहत रामलला की मूर्ति को मस्जिद से निकालकर फिर से राम चबूतरे पर रखवाने को कहा गया। सरकार का यह आदेश 23 दिसंबर 1949 को ही दोपहर ढाई बजे डीएम केके नायर तक पहुंचा दिया गया। मुख्य सचिव का आदेश था कि इसके लिए बल प्रयोग भी करना पड़े तो संकोच न किया जाए। अयोध्या डीएम केकेके नायर ने सरकार का आदेश मानने से मना कर दिया। डीएम नायर ने मुख्य सचिव भगवान सहाय को अपना जवाब भेजा। इसमें कहा कि रामलला की मूर्तियों को गर्भगृह से निकालकर राम चबूतरे पर ले जाना संभव नहीं है। ऐसा करने से अयोध्या, फैजाबाद और आसपास के गांवों- कस्बों में कानून- व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है।
डीएम ने कहा कि जिला प्रशासन के अधिकारियों, यहां तक कि पुलिस वालों की जान की गारंटी भी नहीं दी जा सकती है। डीएम ने सरकार को बताया कि अयोध्या में ऐसा पुजारी मिलना असंभव है, जो विधिपूर्वक रामलला की मूर्तियों को गर्भगृह से हटाने को तैयार हो। इसके लिए अपने इहलोक के साथ- साथ परलोक को भी बिगाड़े। ऐसा करने से पुजारी का मोक्ष संकट में पड़ जाएगा। कोई भी पुजारी ऐसा करने को तैयार नहीं होगा।
डीएम के तर्क पर सरकार नहीं हुई सहमत
यूपी की गोविंद वल्लभ पंत सरकार डीएम नायर के तर्कों से सहमत नहीं हुई। सरकार की ओर से दोबारा आदेश दिया गया कि पुरानी स्थिति बहाल की जाए। जवाब में केकेके नायर ने 27 दिसंबर 1949 को दूसरी चिट्ठी लिखी। इसमें उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की। साथ ही सरकार के लिए एक रास्ता भी सुझा दिया। डीएम नायर ने सरकार को सलाह दी कि विस्फोटक हालात को काबू में करने के लिए इस मसले को कोर्ट पर छोड़ा जा सकता है। कोर्ट का फैसला आने तक विवादित ढांचे के बाहर एक जालीनुमा गेट लगाया जा सकता है, जहां से श्रद्धालु रामलला के दर्शन तो कर सकते हैं, लेकिन अंदर प्रवेश नहीं कर सकते हैं। रामलला की नियमित पूजा और भोग लगाने के लिए नियुक्त पुजारियों की संख्या तीन से घटाकर एक की जा सकती है। विवादित ढांचे के आसपास सुरक्षा का घेरा सख्त करके उत्पातियों को वहां फटकने से रोका जा सकता है।
जवाहर लाल नेहरू और पंत सरकार ने डीएम नायर का इस्तीफा अस्वीकार कर दिया। डीएम की ओर से दिए गए सुझावों पर अमल किया गया। इस तरह रामलला की मूर्ति बाबरी मस्जिद के गर्भगृह में रह गई। उस विवाद के बीजारोपण हो गया, जिसने आगे चलकर देश की राजनीतिक और धार्मिक दिशा ही बदलकर रख दी।