बिहार सरकार ने जातीय जनगणना पर वो सफलता हासिल की है, जो सबकी सोच से परे थी। भाजपा के साथ सरकार में रहते हुए सीएम नीतीश कुमार ने इसकी प्रक्रिया शुरू कराई तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस, राजद और लेफ्ट के दलों ने सर्वसम्मति से स्वागत किया। कांग्रेस, राजद और लेफ्ट के सहयोग वाली सरकार में नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना का काम शुरू करवाया तो पटना हाई कोर्ट में लगे शुरुआती झटकों के बाद अंतिम फैसले में भी जीत नीतीश सरकार की ही हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। लेकिन हाई कोर्ट के फैसले की बढ़त नीतीश सरकार के पास है। कहा जा रहा है कि रिपोर्ट लगभग तैयार है। यह वह रिपोर्ट है जिसके बारे में सरकार के पक्षधर दावा कर रहे हैं कि इससे राज्य में जातियों की सही जानकारी के साथ-साथ उनकी सामाजिक और आर्थिक हालात को समझने में सहूलियत होगी। जबकि इसी बिहार में एक हकीकत यह भी है कि 10 सालों से एक रिपोर्ट जारी होने के बाद धूल फांक रही है। वह रिपोर्ट सवर्ण आयोग की रिपोर्ट है, जिसके बारे में इसी नीतीश सरकार का दावा था कि सवर्णों की स्थिति में सुधार के लिए योजना बनाई जाएगी।
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2013 में प्रकाशित हुई थी सवर्ण आयोग की रिपोर्ट
बिहार जिस तरह जातीय जनगणना के मामले में देश का अकेला राज्य बना हुआ है। उसी प्रकार बिहार की सरकार ने सवर्ण आयोग बनाकर भी अपने अनूठेपन का रिकॉर्ड दर्ज कराया था। 2011 में नीतीश सरकार ने सवर्ण आयोग तब बनाया था, जब सरकार के पास प्रचंड बहुमत था। 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए ने 206 सीटें जीती थी। इसी सरकार के गठन के बाद 2011 में सवर्ण आयोग बना। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार लगभग 2 साल में 25 जिलों में अपने अध्ययन के आधार पर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट तैयार की। उस रिपोर्ट को सरकार ने पब्लिक डोमेन में रिलीज भी किया। लेकिन बताया जाता है कि उस पर कभी कोई अमल नहीं हुआ।
क्या थी सवर्ण आयोग की सिफारिशें?
- सालाना डेढ़ लाख से कम कमानेवाले सवर्ण परिवार माने जायेंगे गरीब।
- गरीब सवर्णो को सभी कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में रखने की अनुशंसा।
- कक्षा एक से दस तक के छात्र जिनकी पारिवारिक आय डेढ़ लाख या उससे कम होगी वैसे उंची जाति के छात्रों को भी छात्रवृत्ति मिले।
आयोग के गठन का मकसद
- सवर्णें में शैक्षणिक व आर्थिक रूप से कमजोर समूह की पहचान करना।
- सवर्णों में ऐसे वर्ग की पहचान करना जिनके पास दूसरे वर्ग की तुलना में आर्थिक लाभ के सीमित श्रोत हैं, जिसमें जमीन भी शामिल है। उनके पुश्तैनी धंधे की महत्ता कम हो रही है, इसका आंकलन करना।
- उनके पिछड़ेपन के कारणों की तलाश करना और उनके व्यापक हित में सुझाव देना।
- राज्य सरकार आर्थिक आधार पर एक पैमाना तय कर जिससे ऊंची जाति के उन लोगों की पहचान की जा सके जो प्रतिकृल परिस्थितियों में रह रहे हैं।
आयोग की रिपोर्ट के महत्वपूर्ण फैक्ट्स
- वर्ण जाति के 49% (ग्रामीण क्षेत्रों के) बच्चे केवल गरीबी के कारण पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं।
- सवर्णों का मुख्य पेशा कृषि है, लेकिन राज्य के 55 फीसदी से ज्यादा सवर्ण ऐसे हैं, जिनके पास 1 एकड़ से कम जमीन बची हैं।
- लगभग 20% सवर्ण आबादी के पास रहने के लिए पक्का मकान नहीं है।
- बिहार की 36.6% सवर्ण आबादी गरीबी रेखा के नीचे हैं ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में ब्राह्मण के 8.5%, भूमिहार के 13.2%, राजपूत के 8.6% और कायस्थ के 9.1% लोग बेरोजगार हैं। जबकि शहरी क्षेत्रों ये क्रमश: 8.9%, 10.4%, 10.5%, 14.1% हैं।
- सवर्ण के मात्र 9.9% युवा ही ग्रेजुएशन या ग्रेजुएशन से ऊपर की पढ़ाई कर पाते हैं। वहीं शहरी क्षेत्रों में ये आंकड़ा 31.7% है।
- बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति 100 घर में से 43.5% सवर्ण पलायन को मजबूर हैं।
आयोग का सर्वे
सवर्ण आयोग में कुल 5 सदस्य थे। इसमें संजय प्रकाश के हटने पर रिपुदमन श्रीवास्तव को आयोग में शामिल किया। आयोग ने 25 जिलों में सर्वे किया था। इसमें 20 ग्रामीण जिले और 5 शहरी जिले शामिल थे। इन जिलों के लगभग 11 हजार परिवारों तक आयोग की टीम पहुंची थी।