[Team insider] एक आदिवासी मित्र ने कहा था अब शुगर और बीपी जैसी बीमारियां हमारे समाज में भी होने लगी हैं। दलील थी कि हमलोगों की भोजन परंपरा ऐसी रही है कि अपने आप में औषधि। आदिवासी समाज सिर्फ भूख मिटाने के लिए भोजन नहीं करता। पारंपरिक भोजन में ही इतनी सामग्री होती है जिनमें पर्याप्त मात्रा में रोगों से लड़ने की क्षमता होती है। बहुत अरजने की चिंता नहीं और रहा सहा कसर शारीरिक श्रम पूरा कर देता है। मगर अब आधुनिक खानपान की विक्रतियां इस हमारे समाज में भी आने लगी हैं। संकट में पड़ी जनजातीय आबादी और बोली-भाषा के साथ खाद्य परंपरा पर भी संकट है।
लापता होने को है आदिवासी चिकित्सा पद्यति ‘होड़ोपैथी’
समृद्ध खाद्य परंपरा का ही नतीजा रहा कि कोरोना के संकट काल में आदिवासी समाज इससे बहुत कम प्रभावित हुआ। फूल, पत्ते, साग, कंद-मूल में भरपूर औषधीय गुण हैं। मगर अब उन कंद कई फूल हैं, जिनका औषधीय महत्व है। हालांकि, घटते जंगल और आधुनिक परिवेश की घुसपैठ के कारण ऐसे लोगों की संख्या घटती जा रही है जो गुणकारी साग और कंद मूल और उसके गुणों को पहचानते हैं। आदिवासी चिकित्सा पद्यति ‘होड़ोपैथी’ भी लापता होने को है। जनजातीय भोजन के औषधीय महत्व और उनमें मौजूद पोषक तत्व पर अभी भी वैज्ञानिक अनुषंधान शेष है।
शराब के लिए बदनाम महुआ में आयर और प्रोटीन की भरपूर मात्रा है
बारिश के मौसम में होने वाला स्वाभाविक रूप से पैदा हुआ रुगड़ा रुगड़ा, खुखरी तो अब आम लोगों में भी लोकप्रिय है। इनमें प्रचुर मात्रा में आयरन, प्रोटीन की मात्रा मिलती है। सिर्फ साल के जंगल में साल के पेड़ के नीचे से निकलने वाले रुगड़ा जिसे चालू भाषा में शाकाहारी मटन कहते हैं की पहचान ही लो कोलॉस्ट्रोल और हाई प्रोटीन के लिए है। बंस करील यानी बांस के कोपल भी आदिवासियों के पसंदीदा व्यंजन में शुमार है। मान्यता है कि इसमें प्रचुर मात्रा में बिटामिन सी, कैलशियम, आयरन और पौरुष क्षमता बढ़ाने के गुण हैं। शराब के लिए बदनाम महुआ में आयर और प्रोटीन की भरपूर मात्रा है।
चिरौंजी हो या रुगड़ा दोनों की खेती नहीं होती
ड्रइफ्रूट्स के रूप में इस्तेमाल होने वाले चिरौंजी की भी झारखंड से पहचान है। चिरौंजी हो या रुगड़ा दोनों की खेती नहीं होती। चिरौंजी जंगलों में पैदा होते हैं और प्रोसेसिंग के बाद बाजार में हजार, बारह सौ रुपये किलो की दर से बेचे जाते हैं। तो रुगड़ा साल के पेड़ के नीचे मिट्टी के भीतर से निकलता है। यहां की सरकारों ने तो यहां के फूलों पर काम नहीं किया मगर फूड एवं एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन, यूनाइटेड नेशन ने यहां के फूलों के पोषक तत्व के प्रति दिलचस्पी दिखाई है। पलाश, मुनगा, जीरहुल, कोयनार, सनई, महुआ के फूलों पर काम किया है। और भी फूलों पर काम हो रहा है।
आदिवासियों के परंपरागत भोजन को बचाने कोशिश
अब कुछ लोगों ने आदिवासियों के परंपरागत भोजन को बचाने, उसे बाजार देने की कोशिश शुरू की है। इसी कड़ी में रांची के कांके रोड में ‘अजम एंबा’ के नाम से एक रेस्टोरेंट का संचालन किया जा रहा है। हाल ही लोधमा -कर्रा रोड में कच्चा बारी में रीता अनिमा बाखला ने ‘द ट्राइबल कीचन्स’ नाम से शुरू किया है।
रांची में द ट्राइबल किचन्स की शुरुआत
दिल्ली में शिक्षिका का काम करने वाली रीता का काम प्रभावित हुआ तो रांची में ही द ट्राइबल किचन्स की शुरुआत कर दी। यहां मड़ुआ, चावल का छिलता, मड़ुआ और चावल से बनी जनजातीय मिठाई ‘डोंबू’, गोंदली खीर, लकड़ी की आंच पर मिट्टी की हांडी में तैयार देसी चिकन, पुटकल आलू की सब्जी, पुटकल की चटनी, धुस्का, और चावल से ओल-बादाम की चटनी से लेकर भांति-भांति के ट्राइबल फूल मिल जायेंगे। मैच के लिए सामान्य से लेकर चाइनीज फास्ट फूड तक।
50-52 किस्म के सागों की सूची
खूंटी के बिरसा कॉलेज में नागपुरिया की पढ़ाने वाली अंजु लता ने झारखंड में पैदा होने वाले सागों पर काफी काम किया है। आदिवासी समाज द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 50-52 किस्म के सागों की सूची तैयार की है, उनके गुणों के बारे में आदिवासी समाज में मान्य परंपरा के हिसाब से अध्ययन किया है। यहां पाये जाने वाले अधिसंख्या सागों की खेती नहीं होती। मौसम के हिसाब से ये जंगलों में, खेतों में खुद ब खुद उग जाते हैं। अब तो इन सागों को पहचानने वाले भी बहुत कम लोग ही रह गये हैं। कुछ जमीन पर उगते हैं तो कुछ पेड़ के पत्ते साग के रूप में इस्तेमाल होते हैं।
सहजन के पत्ते, फल, तना सब उपयोगी होते हैं
सिलियारी, तेतहरपल्लावा, करनी, कोयनार, गुरु, अम्तीम, हिरनिचा, हुरहुरिया, लेदरा, मट्ठा जैसे कई भांति भांति के साग हैं। सहजन के पत्ते, फल, तना सब उपयोगी होते हैं। फुटकल साग पेड़ के पत्ते हैं, तो चाकोड़ साग छोटे पौधे के पत्ते। दोनों को सुखाकर पाउडर बना लिया जाता है। आदिवासी समाज इसे चावल पसाने से निकलने वाले माड़ में टमाटर आदि मिलाकर दाल की तरह इस्तेमाल करता है। दस्त, पेचिश, मरोड़ में फुटकल साग बहुत कारगर है। इसका अचार और चटनी भी बनाते हैं।
ब्राह्मी जिसमें स्मरण शक्ति बढ़ाने की क्षमता होती है
चाकोड़ साग पीलिया, शुगर के मरीजों के लिए उपयोगी है। इससे सर्दी-खांसी में भी राहत मिलती है और इसके सेवन से आंखों की रोशनी बढ़ती है। मुंह में छाले आने पर इसके पाउडर को पानी में मिला कुल्ला करने से राहत मिलती है। कुष्ठ रोग और जहरीले सांप, बिच्छू, बिढ़नी के काटने पर भी इसे पीस कर लगाया जाता है। ब्राह्मी जिसमें स्मरण शक्ति बढ़ाने की क्षमता होती है जनजातीय समाज में बेग साग के नाम से प्रचलित है। इसे ताजा और सुखाकर दोनों तरीके से खाया जाता है। पीलिया, शुगर, पेशाब कम होने, पेट गरम होने, ल्यूकोरिया, चर्म रोग एवं कुष्ठ रोग में भी कारगर है।
पुनर्नवा आदिवासियों में खपरा साग के नाम से चर्चित है
जनजातीय समाज की मान्याता है कि जिन्हें नींद न आने की परेशानी हो उनके लिए सुनसुनिया साग उपयोगी है। पुनर्नवा आदिवासियों में खपरा साग के नाम से चर्चित है। चिमटी साग शुगर में फायदेमंद है तो पेट की गर्मी भी मिटती है। यह शुगर, हार्ट, बीपी के मरीजों के लिए उपयोगी है। इसमें कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है। इन्हें पहचानने और बचाने की जरूरत है।