[Team insider] सूचना तंत्र की दुनिया में विज्ञापन का अपना महत्व है। आज के दौर में बिना विज्ञापन, अखबार, टीवी चैनल या न्यूज पोर्टल की कल्पना नहीं की जा सकती। एक प्रकार से यह मीडिया तंत्र की रीढ़ है। यह अपने आप में अर्थव्यवस्था और उद्योग-व्यापार के उतार-चढ़ाव का पैमाना भी है। कोरोना काल ने इसका खूब एहसास कराया। जब देश दुनिया में उद्योग व्यापार पर कोरोना के कारण संकट गहराये तो सबसे पहले विज्ञापनों पर असर पड़ा। उद्योग व्यापार जगह ने सबसे पहले विज्ञापनों में कटौती शुरू की तो मीडिया संस्थान लड़खड़ाने लगे। खर्च कटौती के नाम पर धड़ाधड़ छंटनी होने लगी तो अखबारों के संस्करण, क्षेत्रीय कार्यालय, चैनल बंद होने लगे। तो, ऐसा है विज्ञापनों का महत्व।
कोलकाता से हिंदी साप्ताहिक ‘बिहार बंधु’ की हुई थी शुरुआत
मगर आप को यह जानकर हैरत होगी कि आज के दौर में भी पिछड़े राज्यों के अंतिम पायदान पर खड़े झारखंड से हिंदी पट्टी का पहला व्यावसायिक विज्ञापन निकला था। करीब 146-47 साल पहले। तब न झारखंड था न बिहार न ओडिशा। सभी बंगाल प्रांत के हिस्से थे और बिहारशरीफ के कुछ दक्षिण भारतीय भट्ट बंधु ने कोलकाता से हिंदी साप्ताहिक ‘बिहार बंधु’ की शुरुआत की थी। 1873 में एक साल के अंतराल में ही यह पटना चला आया और चौहट्टा में वर्तमान पटना कॉलेज परिसर के किनारे छपने लगा। यह हिंदी पट़्टी का बड़ा लोकप्रिय और क्रांतिकारी अखबार था। बिहार का पहला हिंदी साप्ताहिक होने का इसे खिताब है। उसी अखबार में सितंबर 1874 में एक व्यावसायिक विज्ञापन छपा था। कह सकते हैं रियल स्टेट का। एक मकान की बिक्री का।
विज्ञापन का मजमून कुछ इस तरह था:- ” बहुत अच्छा मकान बिकता है। देशी अमीरों को खबर दी जाती है कि स्टेशन साहिबगंज में गंगा किनारे एक बहुत खूबसूरत पक्का बना हुआ मकान जिसमें अच्छा अस्तबल, नौकरों के रहने की जगह, बबरचीखाना, गुदाम और बहुत अच्छा खानेबाग बना है। और सब तरह के फल फूल लगा है और नजदीक उसके कोई मकान नहीं है। बहुत सस्ते दाम में बिकरी होगा। जिनको खरीदना है वो बाबू दरशनलाल को साहिबगंज में लिख भेजें। ”
1885 में पहली बार तस्वीर के साथ छपा था विज्ञापन
हालांकि इस विज्ञापन के पहले भी उस अखबार में छपे थे। मार्च 1874, ”जिन साहिबों को कलकत्ते से जो कुछ मंगवाना है वह बिहार बंधु के मनेजर के पास रुपया भेज दे सकते हैं। भाड़ा का खर्च और फी रुपया एक आना पहले देना पड़ेगा। माल बहुत जल्द भेजा जायेगा।” मगर यह खुद अखबार का ही विज्ञापन था इसलिए इसे कहां तक व्यावसायिक माना जाये। उस दौर में अखबार में कपड़े, किताबों, चश्मे, जड़ीबूटी-यूनानी दवाओं के विज्ञापन छपते थे। 1885 में पहली बार तस्वीर के साथ कलम के नींव का विज्ञापन आया था। कोलकाता की कंपनी का था। उसके पहले तक विज्ञापन सिर्फ शब्दों के सहारे छपते थे। बहरहाल आज के साहिबगंज को देख कर पहले विज्ञापन की कल्पना, उम्मीद से परे है।