देश के उप चुनाव के परिणाम से निकलते संकेत चिंता बढ़ाने वाले हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव का परिणाम अपेक्षित था। 27 साल बाद भी प्रदेश में एंटी इनकम्बेंसी जैसी कोई लहर नहीं दिखी। चुनावी मैदान में नरेंद्र मोदी सबसे बड़ा चेहरा रहे और केंद्र की सत्ता से लेकर प्रदेश की राजनीति तक उन की धमक और चमक लगातार देखी जाती रही। भाजपा यहां से जीतेगी, यह पहले से तय था। बस देखना यह था कि अन्य पार्टियों का प्रदर्शन कैसा रहता है। गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 में कांग्रेस एकजुट होकर लड़ी थी और भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। इस बार चुनावी मैदान में कांग्रेस बिखरी दिखी और वोट काटने के लिए आम आदमी पार्टी मैदान में डटी हुई थी। 2017 में भी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में भाजपा कामयाब हुई थी। कोई बदलाव नहीं हुआ। लेकिन, इस बार इतिहास रचा गया।
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हिमाचल के परिणाम ने नहीं चौंकाया
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम भी चौंकाने वाला नहीं रहा। चुनावी मैदान में गए तमाम लोग यह मानकर चल रहे थे कि भाजपा अंदरूनी कलह से जूझ रही है। पार्टी में कई नेता बगावती रुख अपनाए हुए थे। ऐसा कि पीएम नरेंद्र मोदी तक को फोन करके बगावती उम्मीदवार को मनाने की कोशिश करनी पड़ी, भले ही उससे उनके रुख में कोई बदलाव नहीं आया। कांग्रेस ने रणनीति में बदलाव किया। किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे को नहीं उठाया। उम्मीदवारों के स्तर पर क्षेत्रीय मुद्दे उठाए गए। स्थिति यह रही कि भाजपा अंदरूनी कलह से लड़ते-लड़ते, कांग्रेस से लड़ना ही भूल गई। इस चुनाव परिणाम से हासिल होता कुछ नहीं दिख रहा है। हिमाचल में हर 5 साल बाद सत्ता में बदलाव का रिवाज चला आ रहा है और यह इस बार भी जारी रहा। तो बदलाव कहां हुआ? सवाल यह उठता है। बदलाव उप चुनाव के परिणाम में दिखा और यही सबसे बड़ा जवाब है।
उत्तर प्रदेश के परिणाम ने जगाई उम्मीद
उत्तर प्रदेश में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव के परिणामों ने उम्मीद जगाई है। यह उम्मीद विपक्ष के लिए बड़ी है। लेकिन संकेतों को समझेंगे तो बड़े बदलाव की आहट एक बार फिर उत्तर प्रदेश में सुनी जा सकती है। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले उत्तर प्रदेश में राजनीति करवट लेती दिख रही है। 2013 में जब उत्तर प्रदेश में अमित शाह संगठन प्रभारी बनकर आए थे तो उन्होंने बूथ स्तर तक पार्टी के संगठन को पहुंचाने की कोशिश की। मुद्दे जनता के बीच उठाए गए पहुंचाए गए। स्थापित किए गए। हिंदुत्व का मुद्दा प्रभावी रूप से जनता के बीच पहुंचा दिया गया। करीब एक दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति को यह मुद्दा प्रभावित करता रहा है। भाजपा यहां से लगातार जीती है। अन्य दल हाशिए पर चले गए। समाजवादी पार्टी का M-Y समीकरण हो या बहुजन समाज पार्टी का दलित वोट बैंक, हर कोई भाजपा के हिंदुत्व के आगे पिछड़ता चला गया। लेकिन उपचुनाव के परिणाम होने बदलाव के संकेत दिए हैं। बदलाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश खतौली और रामपुर विधानसभा उपचुनाव का परिणाम से देखें और सुने जा सकते हैं।
टूटा बड़ा गठजोड़
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति मुजफ्फरनगर में हुए 2013 के दं’गों के बाद पूरी तरह से बदल गई। इस क्षेत्र में जाट और मुस्लिम वोट बैंक का जो एक गठजोड़ चुनावी राजनीति को उम्मीदवारों के पक्ष में मोड़ने में सफल होता रहा था। वह टूट गया। भारतीय जनता पार्टी ने जाट वोट बैंक को साध लिया। अन्य वोटरों को एकजुट किया और एक बड़े पैकेट पर कब्जा जमा लिया। लोकसभा चुनाव 2014 और 2019, विधानसभा चुनाव 2017 और 2022 में यह समीकरण कारगर रहा। भाजपा बड़े अंतर से जीती। यूपी चुनाव 2022 से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की धमक के कारण भाजपा को नुकसान पहुंचने की बात कही जा रही थी। लेकिन, परिणामों में असर बिल्कुल नहीं दिखा अब बदलाव के संकेत हैं।
टिकैत के गढ़ में परचम
खतौली विधान सभा सीट इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि किसान नेता राकेश टिकैत का गढ़ है। यहां पर यूपी चुनाव के दौरान भाजपा जीती तो इसे टिकैत की हार के रूप में देखा गया। इस बार के चुनाव में जयंत चौधरी ने एक बार फिर जाट मुस्लिम समीकरण को स्थापित करने की कोशिश की है। अगर यह समीकरण पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बार फिर स्थापित होता है तो मुश्किलें भारतीय जनता पार्टी के लिए बढने वाली हैं। साथ ही, भाजपा को झटका तब लगा है, जब पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में भूपेंद्र चौधरी की नियुक्ति की है। भूपेंद्र चौधरी जाट नेता हैं। जाट बहुल क्षेत्र में भाजपा की हार में राजनीतिक समीकरण के बदलाव के संकेत दे दिए हैं। सबसे बड़ा संकेत यह कि क्या जाट और मुस्लिम वोट बैंक क्या एक बार फिर साथ आ रहे हैं? अगर ऐसा हुआ तो यूपी की राजनीति में बड़ा बदलाव दिख सकता है।
रामपुर से मिला बड़ा संकेत
वहीं रामपुर में आजम खान का किला गया है। नवाबों के खिलाफ पसमांदा मुसलमानों की राजनीति कर रामपुर में अभेद्य किला बनाने वाले आजम खान इस बार उपचुनाव की बिसात पर अपनी गोटी को जीत दिला पाने में कामयाब नहीं हुए। 2019 के हेट स्पीच केस में सजा के कारण विधायक की गई तो आजम खान ने असिम रजा को चुनावी मैदान में उतार दिया। असिम रजा लोकसभा उपचुनाव में हार चुके थे। इसके बावजूद आजम ने उनपर बाजी खेली। लेकिन, कोर्ट से लेकर चुनावी मैदान तक भाजपा के आकाश सक्सेना ने आजम को पटखनी दी। आजम के गढ़ में पहली बार भारतीय जनता पार्टी जीती। यह बड़ा राजनीतिक संकेत है।
पसमांदा को साधने की कोशिश
रामपुर में करीब 55 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। इसमें पसमांदा मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक है। भारतीय जनता पार्टी ने पिछले दिनों मोहम्मद दानिश आजाद के जरिए पसमांदा मुसलमानों को साधने की राजनीति शुरू की है। दानिश योगी सरकार में मंत्री हैं। पसमांदा मुस्लिम सम्मेलन करा चुके हैं। रामपुर में पसमांदा मुसलमानों के बीच का योजनाओं का उद्घाटन कर चुके हैं और असर चुनावी मैदान में दिखा। 55 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले रामपुर में भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में 64 फीसदी से अधिक वोट आया है। वहीं, आजम के उम्मीदवार महज 33 फीसदी के करीब वोट शेयर पाने में कामयाब रहे। इस चुनाव परिणाम ने सवाल यह खड़ा कर दिया है कि क्या पसमांदा मुसलमान अब भाजपा के समर्थन में आने लगे हैं? अगर ऐसा हुआ तो फिर मुश्किलें अखिलेश यादव की बढ़ेगी, जो माय समीकरण को पूरी तरह से मजबूत कर 2024 की बिसात पर अपने घोड़ों को दौराना चाह रहे हैं। वे किसी भी स्थिति में मुस्लिम में यादव गठजोड़ को टूटने नहीं देने की कोशिश में है।
बिहार का संकेत गुजरात से बड़ा
बिहार के उप चुनाव का परिणाम गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की जीत से बड़ा संकेत दे रहा है। बिहार के कुढ़नी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा ने जीत हासिल की। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में एनडीए के एकजुट होने की स्थिति में भी उसने सीट राजद के पास गई थी। लेकिन, राजद ने इस बार सीट जदयू को दे दी। जदयू ने यहां से अपने पके पकाए उम्मीदवार मनोज कुशवाहा को चुनावी मैदान में उतार दिया। मनोज कुशवाहा नीतीश सरकार में मंत्री रह चुके हैं। कुशवाहा समाज के बड़े नेता माने जाते हैं। उनकी नजर कुढ़नी के 35,000 कुशवाहा वोटरों को साध कर एक बार फिर विधानसभा पहुंचने की थी।
महागठबंधन के एकजुट होने की स्थिति में मुस्लिम और यादव वोट बैंक भी उन्हें मिलना चाहिए था। ऐसा होता भी दिखा। लेकिन, कुशवाहा और भूमिहार वोटरों ने खेल कर दिया। नीतीश का लव-कुश यानी कुर्मी कोइरी गठजोड़ कुढ़नी में टूट गया। यहां पर भारतीय जनता पार्टी का सवर्ण, कुशवाहा और दलित गठजोड़ काम कर गया। चिराग पासवान एक बार फिर भाजपा के लिए हनुमान साबित हुए। 2024 की राह यहीं से निकलती दिखने लगी है। कुढ़नी के परिणाम में महागठबंधन नेताओं के चेहरों पर चिंता की लकीरें खड़ी कर दी हैं। वहीं, भाजपा अगली रणनीति के साथ बिहार में अपनी चमक और धमक बढ़ाने में जुट गई है। बिहार उपचुनाव में भाजपा के योगेंद्र प्रसाद गुप्ता की जीत में पार्टी को एक प्रकार से टॉनिक दिया है, जिसके सहारे प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर नरेंद्र मोदी के चेहरे को लेकर भाजपा 2024 की रणनीति बनाती दिख सकती है।