नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया कि उर्दू को किसी धर्म से जोड़ना न केवल भ्रामक है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी गलत है। महाराष्ट्र के अकोला जिले की पातुर नगर परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू के इस्तेमाल को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि “उर्दू भाषा इसी देश की पैदाइश है और यह हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है।”
“भाषा धर्म की नहीं होती”
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा कि “भाषा किसी धर्म की नहीं होती, वह समाज और संस्कृति की उपज होती है।” कोर्ट ने यह भी कहा कि उर्दू को लेकर बने कई सामाजिक पूर्वाग्रह असल में औपनिवेशिक काल की राजनीति की देन हैं।
याचिका का क्या था मामला?
पातुर नगर परिषद की पूर्व पार्षद वर्षाताई संजय बागड़े ने 2020 में परिषद को पत्र लिखकर साइनबोर्ड से उर्दू भाषा हटाने की मांग की थी। परिषद ने मांग को खारिज करते हुए बताया कि क्षेत्र में 1956 से उर्दू का इस्तेमाल होता आ रहा है और बड़ी आबादी इसे समझती है। बाद में याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, जहां से इसे सिरे से खारिज कर दिया गया।
कोर्ट की अहम टिप्पणियां:
“उर्दू भारत की मिट्टी में जन्मी भाषा है। इसे किसी धर्म से जोड़ना, इतिहास और संस्कृति दोनों के साथ अन्याय है।”
“हमें भाषा के माध्यम से समाज को जोड़ना चाहिए, न कि तोड़ने का जरिया बनाना चाहिए।”
“हमें भाषाई विविधता में सौंदर्य और एकता देखनी चाहिए, न कि खतरा।”
आंकड़ों से पुष्टि
कोर्ट ने 2001 की जनगणना के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि भारत में 122 प्रमुख भाषाएं और 234 मातृभाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें उर्दू छठी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली अनुसूचित भाषा है। यह लगभग हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में मौजूद है।
कानूनी शब्दावली में उर्दू
जस्टिस धूलिया ने अपने फैसले में बताया कि भारतीय अदालतों में प्रयुक्त ‘अदालत’, ‘पेशी’, ‘हलफनामा’, ‘गवाही’ जैसे तमाम शब्द उर्दू से लिए गए हैं, जो इसके समाजिक और कानूनी योगदान को दर्शाते हैं।
फैसले में उर्दू कविता का जिक्र
अपने फैसले को भावनात्मक स्पर्श देते हुए, जस्टिस धूलिया ने उर्दू की पहचान को लेकर एक शायरी का उल्लेख किया:
“उर्दू है मेरा नाम, मैं खुसरो की पहेली,
क्यों मुझको बनाते हो ताज्जुब का निशाना,
मैंने तो खुद को कभी मुसलमान नहीं माना
सामाजिक एकता का संदेश
कोर्ट ने कहा कि “अगर 1947 में देश का बंटवारा न हुआ होता, तो आज शायद ‘हिंदुस्तानी’ भारत की राष्ट्रीय भाषा होती—जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों की मिठास होती।” अदालत ने अपने फैसले के जरिए समाज को भाषाई समरसता और सांस्कृतिक एकता का संदेश दिया।