नई दिल्ली : दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से भारी मात्रा में अधजली नकदी बरामद होने के मामले ने एक बार फिर न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। मंगलवार को कानून एवं न्याय मामलों की संसदीय समिति की बैठक में इस मुद्दे पर गहन चर्चा हुई, जिसमें सांसदों ने जजों के आचरण संहिता (कोड ऑफ कंडUCT) के पालन न होने और जस्टिस वर्मा के खिलाफ अब तक एफआईआर न दर्ज होने पर कड़ी आपत्ति जताई।
कोड ऑफ कंडक्ट सिर्फ कागजों तक सीमित?
सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1997 में लागू किए गए 16-पॉइंट कोड ऑफ कंडक्ट का हवाला देते हुए कहा कि यह नियम जजों के लिए केवल औपचारिकता बनकर रह गया है। 2023 में जजों के लिए संपत्ति घोषणा अनिवार्य करने की सिफारिश की गई थी, लेकिन कई जज अब भी इस नियम का पालन करने में देरी कर रहे हैं। एक सांसद ने कहा, “जजों के राजनीतिक आयोजनों में भाग लेने और रिटायरमेंट के बाद पद ग्रहण करने जैसे मामले भी चिंता का विषय हैं।”
जस्टिस वर्मा के घर से नकदी बरामदगी का मामला
होली की रात, 14 मार्च 2025 को जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी बंगले के स्टोर रूम में आग लगने की घटना के बाद दमकलकर्मियों ने वहां से भारी मात्रा में अधजली नकदी बरामद की थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय जांच समिति ने 23 मार्च 2025 को अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में आरोपों में सत्यता की पुष्टि की थी, जिसमें कहा गया कि आग शराब की बोतलों के कारण और भड़की। इसके बावजूद, जस्टिस वर्मा के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है, जिसे लेकर सांसदों ने नाराजगी जताई।
संसदीय पैनल की कड़ी टिप्पणी
बैठक में एक सांसद ने सवाल उठाया, “जब 25,000 से अधिक अध्यापकों को अनियमितता के आरोप में नौकरी से हटाया जा सकता है, तो एक जज के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो सकती?” दूसरे सांसद ने जस्टिस वर्मा के ट्रांसफर को लेकर भी सवाल किया, “गंभीर आरोपों में घिरे जज का एक हाईकोर्ट से दूसरे में ट्रांसफर कर देना क्या पर्याप्त कार्रवाई है?” इसके अलावा, जस्टिस शेखर यादव के विश्व हिंदू परिषद के आयोजन में शामिल होने और विवादास्पद बयानों पर भी चर्चा हुई।
जांच और जवाबदेही की मांग
सांसदों ने मांग की कि न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की जांच जारी है, लेकिन जनता और सांसदों के बीच यह सवाल बना हुआ है कि क्या जजों के खिलाफ कार्रवाई में देरी न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ में की जा रही है या यह एक गहरी साजिश का हिस्सा है।
यह घटना न केवल जस्टिस वर्मा की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है, बल्कि भारतीय न्यायपालिका की अखंडता पर भी व्यापक बहस को जन्म दे रही है। मामले की आगे की जांच और सरकार की प्रतिक्रिया पर सभी की नजरें टिकी हैं।