कदवा विधानसभा Kadwa Vidhan Sabha (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 64) बिहार की राजनीति में एक अहम पहचान रखती है। कटिहार जिले में स्थित यह सीट 1952 से अस्तित्व में है, हालांकि 1962 में परिसीमन के बाद इसे आजमनगर सीट में मिला दिया गया था। लेकिन 1977 में कदवा फिर से अस्तित्व में आई और तब से यह सीट लगातार बदलते राजनीतिक समीकरणों का गवाह रही है। यहां अब तक 13 चुनाव हो चुके हैं, जिसमें कांग्रेस, निर्दलीय उम्मीदवार, भाजपा और एनसीपी ने बारी-बारी से जीत दर्ज की है।
Katihar Vidhansabha: सियासी विरासत, जातीय समीकरण और BJP की मज़बूत पकड़
चुनावी इतिहास
इतिहास बताता है कि कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवारों का इस सीट पर गहरा प्रभाव रहा है। कांग्रेस ने अब तक पांच बार और निर्दलीय उम्मीदवारों ने चार बार जीत दर्ज की है। वहीं, भाजपा और एनसीपी दो-दो बार विजयी रहे हैं। 2015 में कांग्रेस के डॉ. शकील अहमद खान ने भाजपा प्रत्याशी चंद्र भूषण ठाकुर को 5,799 वोटों से हराया था। 2020 में भी शकील अहमद खान ने चंद्र भूषण ठाकुर को शिकस्त दी, इस बार जीत का अंतर कहीं अधिक यानी 32,402 वोट का था।
जातीय समीकरण
जातीय और सामाजिक समीकरण कदवा विधानसभा में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। यहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक संख्या में मौजूद हैं और यही वजह है कि कांग्रेस को परंपरागत रूप से उनका समर्थन मिलता रहा है। यादव समुदाय भी बड़ी संख्या में है और राजनीतिक दलों के लिए यह समीकरण चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, कदवा में उम्मीदवार का चेहरा और उसकी व्यक्तिगत छवि दल से कहीं अधिक मायने रखती है। 2020 के आंकड़े बताते हैं कि यहां कुल 2,70,427 मतदाता पंजीकृत थे। इनमें पुरुष मतदाता 1,43,190, महिला मतदाता 1,27,146 और तीसरे लिंग के मतदाता 9 थे। यह स्पष्ट करता है कि महिला मतदाता भी यहां चुनावी परिणाम को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
2025 का चुनाव
2025 का चुनाव कदवा में कांग्रेस बनाम भाजपा की सीधी टक्कर का संकेत दे रहा है। कांग्रेस डॉ. शकील अहमद खान के नेतृत्व में अपने जनाधार को बनाए रखने की कोशिश करेगी, वहीं भाजपा यादव मतदाताओं और बिखरे मुस्लिम वोटों को साधने की रणनीति बना रही है। स्थानीय समीकरण, उम्मीदवार की छवि और दलों की गठबंधन राजनीति इस बार भी नतीजे तय करने वाले अहम कारक होंगे।






















