मधुबनी जिले की खजौली विधानसभा सीट निर्वाचन क्षेत्र संख्या 33 (Khajauli Vidhansabha) बिहार की राजनीति में हमेशा से अहम मानी जाती रही है। इस सीट का राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहां पार्टी से ज्यादा उम्मीदवारों की साख और जातीय समीकरणों का असर रहा है। यही वजह है कि समय-समय पर सत्ता का पलड़ा कांग्रेस, राजद और भाजपा के बीच बदलता रहा। मौजूदा समय में यह सीट भारतीय जनता पार्टी के पास है।
राजनीतिक इतिहास
1951 में जब पहली बार इस सीट पर मतदान हुआ तो कांग्रेस के अहमद सकूर ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1957 और 1962 में भी कांग्रेस ने ही जीत हासिल की। अहमद सकूर लगातार 15 साल तक विधायक रहे और कांग्रेस का गढ़ मजबूत होता गया। लेकिन धीरे-धीरे यहां का राजनीतिक समीकरण बदलता गया। 2005 और 2010 में भाजपा ने लगातार जीत दर्ज कर इस सीट पर अपनी मौजूदगी दर्ज की।
पिछले चुनाव के नतीजे
2010 का चुनाव भाजपा के लिए खास रहा, जब अरुण शंकर प्रसाद ने राजद के सीताराम यादव को हराया। उन्हें 44,959 वोट मिले, जबकि सीताराम यादव को 34,246 वोट मिले। दिलचस्प बात यह रही कि हार-जीत का अंतर 10,713 वोटों का रहा। पांच साल बाद 2015 में हालात बदले और राजद ने वापसी की। सीताराम यादव ने इस बार भाजपा के अरुण शंकर प्रसाद को शिकस्त दी। सीताराम यादव को 71,534 वोट मिले जबकि अरुण शंकर प्रसाद को 60,831 वोटों पर संतोष करना पड़ा। इस बार हार-जीत का अंतर 10,703 वोटों का रहा।
Benipatti Vidhansabha: कांग्रेस का गढ़ टूटा, भाजपा ने जमाई पकड़.. 2025 की लड़ाई दिलचस्प
2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर इस सीट पर कब्जा जमाया। अरुण शंकर प्रसाद ने शानदार प्रदर्शन करते हुए सीताराम यादव को बड़े अंतर से हराया। भाजपा प्रत्याशी को 82,870 वोट मिले जबकि राजद उम्मीदवार को 59,833 वोट ही हासिल हो सके। इस बार जीत का अंतर बढ़कर 22,689 वोट तक पहुंच गया, जिसने भाजपा की पकड़ मजबूत कर दी।
जातीय समीकरण
खजौली का जातीय समीकरण यहां की राजनीति में निर्णायक साबित होता है। मुस्लिम और यादव मतदाता यहां सबसे ज्यादा प्रभाव रखते हैं। इसके अलावा पासवान और रविदास समुदाय भी हार-जीत तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि राजद यहां लगातार मजबूत दावेदारी पेश करता रहा है, लेकिन भाजपा ने 2020 में बड़े अंतर से जीतकर स्पष्ट संदेश दिया कि यह सीट अब उसके लिए सुरक्षित हो चुकी है।
खजौली विधानसभा का इतिहास बताता है कि यहां जीतने के लिए केवल पार्टी का नाम काफी नहीं है। जातीय समीकरण, प्रत्याशी की पकड़ और स्थानीय मुद्दे हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। 2025 का चुनाव इस सीट पर राजद और भाजपा के बीच एक बार फिर सीधी लड़ाई लेकर आएगा और यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा अपना किला बचा पाती है या राजद यहां वापसी करता है।






















