लोकतंत्र में यह कई बार साबित हो चुका है कि सियासी अखाड़े में जो आखिर तक टिका रहेगा, जीत उसी की होगी। शायद यही कारण है कि जब जब इसकी परीक्षा होती है, हर वार को आखिरी वार बनाने की चेष्टा, राजनीति में आम नजारा होती है। बीते दिन दो बड़ी बैठकें हुई हैं। एक बैठक में वो 26 दल जुटे जो मौजूदा सरकार को हर हाल में बेदखल करना चाहते हैं। तो दूसरी बैठक में वो दल जुटे, जो हर हाल में मौजूदा सरकार को अगले चुनाव के बाद भी बनाए रखना चाहते हैं। दोनों बैठकों का असली और अंतिम नतीजा आने में अभी कम से कम 10 महीने की देरी है लेकिन इससे पहले के जो हालात दिख रहे हैं, उसमें पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा की बौखलाहट स्पष्ट दिख रही है। दोनों पर दबाव ऐसा दिख रहा है कि जैसे हथियार अब छूटे न तब छूटे। अब सवाल यह है कि क्या पीएम मोदी और भाजपा सच में बौखला गए हैं? सवाल यह भी है कि क्या दोनों ने विपक्षी दलों के सामने चुनाव से पहले ही हथियार भी डाल दिए हैं?
कभी NDA में थे ये दल, अब ‘INDIA’ का बन गए हिस्सा
जीत-हार तय नहीं, पर कड़ा मुकाबला तय
दरअसल, बेंगलुरु में हुई विपक्षी दलों की बैठक का कोई लाभ होगा या नहीं, यह अभी तो नहीं कह सकते हैं। लेकिन इतना जरुर कह सकते हैं कि भाजपा बौखला गई है। भाजपा के ‘चाणक्य’ और ‘चंद्रगुप्त’ दोनों ने इतना जरुर मान लिया है कि जीते कोई भी, युद्ध महाभारत से कम नहीं होगा। भाजपा की बौखलाहट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण से भी दिखती है, जिसमें वे उद्घाटन तो पोर्ट ब्लेयर के नए टर्मिनल का कर रहे थे, लेकिन उनकी जुबां और जेहन से बेंगलुरु की बैठक हट ही नहीं रही थी। पीएम मोदी ने विपक्षी दलों पर जितने आरोप लगाए, उसमें कुछ भी नया नहीं था। वे पहले से ये आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन बेंगलुरु की बैठक के वक्त ही लाइव समारोह में आरोप लगाने को उनकी बौखलाहट के तौर पर देखा जा रहा है।
विपक्ष के ग्राउंड में खेलने को मजबूर हुई भाजपा
अब बात करें भाजपा के बौखलाहट की तो वो भी अब खुल कर सामने आ चुकी है। भारतीय लोकतंत्र में पूर्ण बहुमत की सरकारें बीते जमाने की बात हो चुकी थी। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई में भाजपा ने उस कांसेप्ट को वापस ला दिया। भाजपा ने लगातार दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। साथ ही भाजपाई यह भी कहते रहे कि पूर्ण बहुमत की सरकार होने के कारण देश के हित के लिए फैसले लेने में सहूलियत हुई है। साथ ही भाजपा नेताओं का यह भी दावा रहा है कि पूर्ण बहुमत की सरकार होने के कारण ही विदेशों में भी भारत का मान बढ़ा है। लेकिन पूर्ण बहुमत यानि अकेली पार्टी की सरकार का दावा करते करते, भाजपा विपक्षी दलों के ग्राउंड में आकर खेलने लगी है। यानि जब विपक्षी दलों ने अपना कुनबा पटना में दिखाया तो भाजपा भी अपना कुनबा बढ़ाने लगी। जीतन राम मांझी, अजित पवार, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान समेत कई दूसरे नाम इसी नए खेल का नतीजा है।
2024 की नीति पर दोबारा काम शुरू
भाजपा के लिए आने वाला चुनाव में कम चुनौतियां नहीं हैं। कुछ माह पहले तक ऐसा लग रहा था कि विपक्षी दल एक टेबल पर बैठेंगे कैसे, लेकिन लगातार दो बार बैठकें होने के बाद अब भाजपा को अपनी नीति बदलनी पड़ रही है। नरेंद्र मोदी के तथाकथित करिश्माई व्यक्तित्व के भरोसे से अलग हटकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों की फोटो अपने फ्रेम में एडजस्ट करने की कोशिशें तो शुरू हो ही चुकी हैं। 2024 के लिए भाजपा को नया मुद्दा तलाशना अभी शेष है। 2014 में भाजपा की जीत के पीछे कांग्रेस की एंटीइन्कमबैंसी को कारण माना गया। तो 2019 में राष्ट्रवाद की प्रचंड लहर ने भाजपा को जीत के किनारे पर लगा दिया। लेकिन अब 2024 में एंटीइन्कमबैंसी भी भाजपा के साथ है और राष्ट्रवाद की प्रचंड लहर पुरानी पड़ चुकी है।