बॉम्बे हाई कोर्ट ने जातिगत आरक्षण पर टिप्पणी करने को एससी-एसटी एक्ट के तहत अपराध नहीं मानते हुए एक अहम आदेश दिया है। कोर्ट ने कहा कि दो व्यक्तियों के बीच निजी बातचीत और खासतौर पर वॉट्सऐप पर भेजे गए मेसेज को इस दायरे में नहीं लिया जा सकता। यह मामला नागपुर का है, जहां एक महिला ने अपने बॉयफ्रेंड से रिलेशनशिप खत्म करने के बाद वॉट्सऐप पर एक मेसेज भेजा था। आरोप था कि महिला ने इस मेसेज में जातिगत आरक्षण के खिलाफ टिप्पणी की और इसके साथ ही शख्स को अपमानित किया। हालांकि, बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले में निर्णय सुनाते हुए महिला के खिलाफ केस को खारिज कर दिया और निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा।
कोर्ट ने कहा कि उस मेसेज में जातिगत आरक्षण पर एक टिप्पणी थी और वह भी एक फॉरवर्ड किया गया मेसेज था। बेंच ने यह स्पष्ट किया कि केवल जातिगत आरक्षण पर व्यक्तिगत बातचीत करना और वह भी वॉट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म पर, एससी-एसटी एक्ट के तहत मामला नहीं बनता। जस्टिस उर्मिला जोशी-फालके ने अपने आदेश में कहा कि इस तरह की टिप्पणी से अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लोगों की भावनाएं आहत नहीं होती और न ही महिला ने सार्वजनिक तौर पर कोई अपमानजनक बात कही थी।
इस मामले में शख्स ने महिला के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज कराया था और उनका आरोप था कि महिला ने जातिगत टिप्पणी कर उनका अपमान किया। महिला ने इस संबंध में भेजे गए मेसेज को फॉरवर्ड किया था, जो कि आरक्षण पर थी, लेकिन कोर्ट ने इसे निजी बातचीत और व्यक्तिगत विचारधारा के दायरे में रखा है, जिससे मामला कानून के तहत नहीं आता।
कोर्ट के आदेश के बाद, महिला पर दर्ज आरोपों को निरस्त कर दिया गया और यह आदेश दिया गया कि ऐसा कुछ भी नहीं था जो अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के खिलाफ घृणा या अपमान का कारण बन सके।
यह मामला खास तौर पर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जातिगत टिप्पणी के दायरे को लेकर एक स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि व्यक्तिगत बातचीत में जातिगत आरक्षण पर विचार व्यक्त करना किसी समुदाय के खिलाफ अपराध नहीं माना जा सकता।