Nitish Cabinet Politics: बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मोड़ पर खड़ी है, जहां दिखने वाली तस्वीर और असली तस्वीर में जमीन–आसमान का फर्क है। नीतीश कुमार ने 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर सत्ता की वापसी जरूर की, लेकिन असली चर्चा उस फैसले की हो रही है जिसने सत्ता संतुलन के मायने बदल दिए- गृह विभाग भारतीय जनता पार्टी को सौंपना।
पहली नज़र में यह फैसला ऐसा लगता है जैसे नीतीश ने सत्ता का असली नियंत्रण छोड़ दिया हो और भाजपा अब सरकार का पावर सेंटर बन गई हो। लेकिन राजनीति केवल विभागों के नाम से नहीं चलती, असल शक्ति बजट और प्रशासनिक कमान में छिपी होती है और यहीं खेल पलटा है।
भाजपा को गृह मंत्रालय, स्वास्थ्य, उद्योग, नगर विकास और सड़क निर्माण जैसे हाई-विज़िबिलिटी विभाग भले मिले हों, लेकिन बजट की असली मोटी फाइलें अब भी जेडीयू के टेबल पर हैं। आंकड़े साफ कहते हैं- जेडीयू के पास 18 विभाग हैं, जिनका कुल बजट करीब 2 लाख 19 हजार करोड़ रुपये है, जबकि भाजपा के पास 14 विभाग होने के बावजूद महज 89 हजार करोड़ का बजट। यानी भाजपा से लगभग 1 लाख 29 हजार करोड़ रुपए ज्यादा फंड नीतीश के ही नियंत्रण में है।
जिन विभागों का बजट सबसे अधिक होता है, वे अक्सर जनता के जीवन से सीधा जुड़ते हैं- जैसे शिक्षा, ग्रामीण विकास, समाज कल्याण, ऊर्जा और जल संसाधन। ये वही विभाग हैं जो चुनावी सालों में सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं, क्योंकि इन्हीं से निकलते हैं रोजगार योजनाओं से लेकर ग्रामीण सड़कें, छात्रवृत्ति और कल्याणकारी योजनाएं।
नीतीश कुमार ने गृह विभाग छोड़कर शक्ति नहीं खोई, बल्कि शक्ति की परिभाषा बदल दी है। भाजपा के पास राजनीतिक पहचान मजबूत करने का अवसर है, लेकिन सत्ता मशीनरी की नब्ज अब भी नीतीश के हाथों में है।
नई सरकार में मंत्रियों की संख्या चाहे जो हो- जेडीयू के 9, भाजपा के 14, और सहयोगी दलों के 4 लेकिन प्रशासनिक फैसलों का असली ब्रेक, क्लच और एक्सिलरेटर मुख्यमंत्री के नियंत्रण में ही रहेगा।
यह मंत्री पदों का बंटवारा नहीं, बल्कि चुनाव पूर्व इंजीनियरिंग है। BJP फ्रंट पर दिखाई देगी, लेकिन डिलीवरी सिस्टम यानी योजनाओं का लाभ, फंड और सियासी क्रेडिट वहीं जाएगा जहां बजट है- यानी नीतीश के दरवाजे। कई लोग इसे भाजपा का उभार मानकर खुश हो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक हलकों में इसे नीतीश की “साइलेंट स्ट्रैटेजी” बताया जा रहा है। बिहार की सत्ता में यह नियम हमेशा से लागू रहा है कि पुलिस सरकार चलाती नहीं, फाइलें चलाती हैं। और वे फाइलें किस टेबल से गुजरेंगी, यह अब तय हो चुका है।
आने वाले महीनों में यह साफ होगा कि यह मंत्रालय वितरण भाजपा को मजबूती देगा या नीतीश को फिर वही राजनीतिक अजेयता लौटाएगा जिसके कारण उन्हें बिहार का मास्टर स्ट्रैटेजिस्ट कहा जाता है। फिलहाल सियासत का एक ही निष्कर्ष निकल रहा है कि कुर्सी चाहे जिसकी हो, नियंत्रण उसी का होता है जिसके पास बजट की चाबी होती है।






















