बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हमेशा अपनी संतुलित छवि और सामाजिक समीकरणों को साधने की कला के लिए जाने जाते रहे हैं। लेकिन 2025 विधानसभा चुनाव से पहले उनके हालिया कदमों ने सियासी हलकों में नई चर्चाओं को जन्म दे दिया है। नीतीश कुमार ने सीतामढ़ी के पुनौराधाम स्थित जानकी मंदिर में भूमि पूजन के दौरान तिलक नहीं लगाया और इसके कुछ ही समय बाद पटना में मदरसा बोर्ड के शताब्दी समारोह में मुस्लिम समुदाय की प्रतीक मानी जाने वाली गोल टोपी पहनने से भी इंकार कर दिया।
नीतीश कुमार के इस रुख को केवल व्यक्तिगत पसंद नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। बिहार की राजनीति में लंबे समय से तिलक और टोपी जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल धार्मिक और जातीय भावनाओं को साधने के लिए होता रहा है। लेकिन अब नीतीश कुमार का इनसे दूरी बनाना संकेत देता है कि वे किसी भी समुदाय को खुश करने के बजाय ‘न्यूट्रल पॉलिटिक्स’ का संदेश देना चाहते हैं।
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विशेषज्ञों का मानना है कि नीतीश कुमार यह संदेश देना चाहते हैं कि वे केवल विकास और सुशासन की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करेंगे, न कि तिलक-टोपी जैसी धार्मिक पहचान की राजनीति पर। यह कदम उन्हें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में ‘संतुलित नेता’ की छवि देने में मदद कर सकता है। हालांकि, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि विरोधी दल इसे नीतीश कुमार की ‘डबल गेम पॉलिटिक्स’ बताकर उन पर हमले तेज कर सकते हैं।
एनडीए में वापसी के बाद से ही नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर लगातार अटकलें लगाई जा रही हैं। बीजेपी के साथ तालमेल करते हुए भी वे अपने सेक्युलर और संतुलित चेहरे को बनाए रखना चाहते हैं। यही वजह है कि तिलक और टोपी, दोनों से परहेज कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी प्राथमिकता जनता का विश्वास और विकास का एजेंडा है।
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि नीतीश कुमार का यह कदम 2025 के चुनावी समीकरणों में बड़ा असर डाल सकता है। बिहार की राजनीति में तिलक और टोपी का प्रतीकात्मक महत्व हमेशा से रहा है, लेकिन नीतीश कुमार इन प्रतीकों से दूरी बनाकर नई राजनीति की परिभाषा लिखना चाहते हैं। यह प्रयोग सफल होगा या उल्टा असर डालेगा, इसका फैसला जनता के वोट से ही होगा।