[Team insider] कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और झारखंड कांग्रेस के प्रभारी आरपीएन सिंह ने हाथ को बाय कर दिया। ट्वीट कर आरपीएन सिंह ने कहा है कि ”आज, जब पूरा राष्ट्र गणतंत्र दिवस का उत्सव मना रहा है, मैं अपने राजनैतिक जीवन में नया अध्याय आरंभ कर रहा हूं। जय हिंद।”। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र भेजकर तत्काल प्रभाव से पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र की बात कही है। देश, जनता और पार्टी की सेवा का अवसर देने के लिए धन्यवाद कहा है। दबी जुवान से इसकी अटकलें पिछले कुछ समय से चल रही थी।
हेमन्त सरकार पर भी संकट के बादल
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले आरपीएन सिंह के जाने का मतलब है। एक तरफ यूपी के सियासी जंग में भाजपा का कांग्रेस को झटका है तो दूसरी तरफ झारखंड में हेमन्त सरकार पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। झारखंड में हेमन्त सरकार के सत्ता संभालने के बाद से ही सरकार को अस्थिर करने की साजिशों के खबर आते रहे हैं। कांग्रेस आलाकमान सोनिया और युवराज राहुल गांधी के करीबी, भरोसेमंद और पार्टी में बड़े ओहदे पर रहने के बावजूद आरपीएन सिंह के जाने के पीछे कयास का दौर तेज हो गया है, आखिर आरपीएन को भाजपा ने क्या दिखा दिया और आरपीएन ने भाजपा को क्या दिखा दिया।
झारखंड पर संकट है खतरा नहीं
तमाम विरोध और आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद के बावजूद दूसरे राउंड में भी आरपीएन सिंह पर कांग्रेस ने भरोसा करते हुए झारखंड का प्रभारी बनाये रखा। इनके नेतृत्व में ही कांग्रेस ने झारखंड में राज्य बनने के बाद सबसे बेहतर नतीजा दिया। बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 16 सीटें हासिल कीं। हालांकि अपनी उपेक्षा को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री सुबोध कांत सहाय और फुरकान अंसारी के निशाने पर रहे। मगर आरपीएन का ही सिक्का चलता रहा। इन्हीं के पसंदीदा राजेश ठाकुर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया जिन्होंने सदन का चेहरा भी नहीं देखा था। इससे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में आरपीएन के विरोधियों की संख्या बढ़ गई थी।
गणित पूरी तरह हेमन्त सोरेन के पक्ष में है
हेमन्त सरकार बनने के समय से ही सरकार के कम समय चलने, अस्थिर करने की खबरें आती रहीं। प्रदेश में सरकार बनाने के लिए 42 विधायकों का गणित बैठता है। अभी 30 जेएमएम, 16 कांग्रेस, और एक आरजेडी सरकार में हैं। कांग्रेस के साथ जेवीएम से आये बंधु तिर्की और प्रदीप यादव मिलाकर कांग्रेस सदस्यों की संख्या 18 हो जाती है। हालांकि इन दोनों की पार्टी की सदस्यता का मामला विधानसभा अध्यक्ष की अदालत में लंबित है। एक माले विधायक का भी बाहर से समर्थन है। जाहिर है गणित पूरी तरह हेमन्त सोरेन के पक्ष में है। हालांकि सात-आठ विधायकों के पाला बदल लेने से गणित सरकार के खिलाफ हो जायेगा। जानकार मानते हैं कि कांग्रेस के आधा दर्जन विधायक आरपीएन के भरोसे के हैं। मगर सरकार को गिराना आसान नहीं है। कांग्रेस विधायकों में विभाजन के लिए 11 विधायकों का टूटना आवश्यक है।
सरकार पर बढ़ जायेगा दबाव
विधानसभा अध्यक्ष भी हेमन्त के भरोसे के हैं। अगर कांग्रेस के कुछ सदस्य सरकार के खिलाफ मतदान में उतरते हैं तो दल बदल कानून के तहत उनकी सदस्यता चली जायेगी। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस खेमे के लगभग सभी आदिवासी विधायक पूरी तरह सरकार के साथ एकजुट हैं। ऐसे में तत्काल हेमन्त सरकार पर खतरा नहीं है मगर सरकार पर दबाव बढ़ जायेगा। आने वाले दिनों में परेशानी बढ़ सकती है। आरपीएन के बूते सूबे की बागडोर संभालने वाले राजेश ठाकुर के साथ प्रदेश कांग्रेस की राजनीत पर भी गहरा असर पड़ेगा।
कांग्रेस में बहुत सहज नहीं दिख रहे थे आरपीएन
ताजा घटनाक्रम बताते हैं कि आरपीएन कांग्रेस में बहुत सहज नहीं दिख रहे थे। उत्तर प्रदेश की जमीन से आने के बावजूद कांग्रेस के स्टार प्रचारकों ने इनका नाम नहीं था। एक दिन पहले स्टार प्रचारकों की जारी सूची में उनका नाम शामिल किया गया। इससे जाहिर हो गया था कि आरपीएन कांग्रेस में दोयम दर्जे के हो गये थे। लगता है कांग्रेस को इसकी भनक थी इसलिए वह तवज्जो नहीं दी जा रही थी।
आरपीएन पडरौना राजघराने से आते हैं
ओबीसी समाज से आने वाले आरपीएन उत्तर प्रदेश के पडरौना राजघराने से आते हैं। कुशीनगर जिला के पडरौना से 1996 से 2009 तक कांग्रेस के विधायक रहे। पडरौना 2009 में यहीं से संसदीय चुनाव जीते। कांग्रेस नीत सरकार में वे गृह राज्य मंत्री के साथा साथ सड़क परिवहन और पेट्रोलियम मंत्री का जिम्मा भी संभाल चुके हैं। उत्तर प्रदेश में ओबीसी के मोर्चे पर लगातार झटका लग रहा था। ऐसे में आरपीएन सिंह की आमद से एक बड़ी राहत मिलेगी।
2014 और 2019 के संसदीय चुनाव में पराजित हुए
आरपीएन की जमीन इसी पडरौना सीट से स्वामी प्रसाद मौर्य चुनाव लड़ते रहे हैं। अभी भाजपा से नाता तोड़ सपा का दामन थामने वाले मौर्य 2009 में पड़रौना संसदीय क्षेत्र से ही बसपा से चुनाव लड़े थे मगर आरपीएन सिंह के हाथों पराजित हुए थे। हालांकि 2014 और 2019 के संसदीय चुनाव में पराजित हुए। सपा का दामन थापने के बाद मौर्य और भाजपा से आरपीएन दोनों के पड़रौना से ही लड़ने का कयास लगाया जा रहा है। संभव है आरपीएन के साथ पडरौना के करीबी इलाकों के कुछ कांग्रेसी भी भाजपा में शामिल हों और मैदान में भी उतरें। बहरहाल भाजपा से लगातार किनारे होते ओबीसी नेताओं के बीच इसी जमात से आने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पर डोरे डाल भाजपा ने राहत की सांस ली है। आने वाले दिनों में इस नये समीकरण के कई और परत उतरेंगे।