मुकेश सहनी बिहार सरकार में पशुपालन मंत्री हैं। अपनी पार्टी के सुप्रीमो हैं, मगर ‘अपनों’ पर ही जोर नहीं। कभी ‘अपने’ लड़ने को सीट नहीं देते। तो कभी उनके ‘अपने’ ही उनके सिंबल से लड़ना नहीं चाहते। बिहार की राजनीति में खुद को कई बार किंग मेकर वाली भूमिका में रखने वाले मुकेश सहनी की हालत विधानसभा के उपचुनाव में पतली दिख रही है।
पार्टी के विधायक भी अपने नहीं!
मुकेश सहनी वीआईपी के बॉस हैं मगर पार्टी के विधायक भी उनके नहीं। सोमवार को कुछ ऐसा ही हुआ। उधर वो दिल्ली गए। इधर बोचहां सीट के उनके भावी उम्मीदवार ने ही लालटेन थम ली। कहने को एनडीए में हैं, एनडीए की सरकार में मंत्री भी हैं लेकिन उनकी ही पार्टी के जीते कैंडिडेट के निधन से खाली सीट से उन्हें बेदखल कर दिया गया। भाजपा की इस हरकत से वे बौखला उठे। मुसाफिर पासवान के निधन से खाली हुई इस सीट पर उनके पुत्र को टिकट देकर सहानुभूति वोटर्स को लुभाना चाहते थे। लेकिन ऐन वक्त पर ही मुसाफिर पासवान के पुत्र अमर पासवान ने पलटी मार राजद का दामन थामकर विधानसभा पहुंचने का नया रास्ता खोज लिया। वैसे जीत का सेहरा तो जनता ही बांधती है मगर जोड़तोड़ का भांगड़ा, पार्टी स्तर पर चुनाव से पहले खूब होता है।
‘अब ये कैंडिडेट मुझे दे दो…’
मुकेश सहनी के लिए स्थिति कुछ ऐसी बनी है मानो बीजेपी ने कहा ये सीट मुझे दे दो… तो राजद ने कहा ये कैंडिडेट मुझे दे दो… मगर पॉलिटिक्स में हार न मानने वालों में शामिल मुकेश इस हाल में भी लड़ने को तैयार बैठे हैं। राजनीति के जानकारों की मानें तो मुकेश अपने ‘आका’ के इशारे पर मैदान में डटे हैं, जो खुद बीजेपी की ताकत को अब समझ रहे हैं।
प्रेशर पॉलिटिक्स तो मुकेश ने भी की
इस राजनीति में दवाब का खेल में यह नया नहीं है। यूपी चुनाव के पहले से ही अपनी शक्ति प्रदर्शन कर बीजेपी पर प्रेशर बना रहे थे। MLC भी हैं, मगर कुछ महीनों में नही रहेगें। उन्हें नई व्यवस्था करनी होगी। बीजेपी से कुछ भनक लगी तो आर पार मुद्रा में आ गए। बयानबाजी के तीर भी खूब चले। मगर असर कम हुआ और वैसे भी यूपी में भाजपा की जीत ने तो अब हर पैंतरे को बेअसर कर दिया। बहरहाल, लोकतंत्र में जिस भगवान के भरोसे सब छोड़ दिया जाता है। अब इनलोगों को भी वही करना होगा, यानी अब जनता ही तय करेगी।