संत कबीर दास का एक दोहा है “जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान” लेकिन भारतीय राजनीति में इनदिनों ये दोहा उल्टा पड़ा हुआ है। जहां जाति पूछने के लिए सब व्याकुल हुए पड़े हैं और उसे पड़े हुए म्यान को ही ब्रह्मास्त्र बनने की जुगत में लगे हुए हैं। आप सही समझ रहे है हम बात कर रहे हैं जातिगत जनगणना की। पिछले कुछ समय से देश में जातिगत जनगणना को लेकर खुब चर्चाएँ हो रही है। तमाम विपक्षी दल इसके पक्ष में दिख रहे हैं। बताया जा रहा ही कि इसके पीछे विपक्षी दलों की सोची समझी रणनीति है। वे जातिगत जनगणना को भाजपा के खिलाफ ब्रह्मास्त की तरह प्रयोग कर उसे परास्त करना चाहते हैं।
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जातिगत जनगणना का इतिहास और वर्तमान स्थिति
मिली जानकारी के अनुसार बेंगलुरु में हुई विपक्षी दलों की दूसरी बैठक में भी जातिगत जनगणना को लेकर चर्चा हुई। विपक्षी दलों का मानना है कि जातिगत जनगणना भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है। वो कैसे होगा ये आगे की बात है पहले ये समझ लेते हैं कि जातिगत जनगणना का इतिहास क्या रहा है और अभी कैसी स्थिति है। बता दें कि साल 2011 में जनसंख्या जनगणना के साथ जातिगत जनगणना भी करवाई गई थी। लेकिन जातिगत जनगणना के रिपोर्ट को गुप्त रखा गया। साल 2015 में कर्नाटक सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराया था पर वो भी रिपोर्ट सार्वजानिक नहीं हुई। वहीं बिहार में जातिगत जनगणना का काम आधे से ज्यादा पूरा हो चुका है लेकिन मामला कोर्ट में अटका पड़ा है। बता दें कि अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान जातिगत जनगणना शुरू हुई थी।
जातिगत जनगणना से पड़ सकता है ऐसा असर
सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर जातिगत जनगणना को विपक्ष हथियार क्यों बनाना चाहती है? इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है जातिगत जनगणना के बाद पड़ने वाला असर। दरअसल अगर जनगणना होती है तो आरक्षण का संकट गहराना निश्चित है। जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की मांग उठनी शुरू हो जाएगी। देश में पहले भी कई बार आरक्षण के मुद्दे पर आंदोलन होते रहे हैं। यदि अभी इस तरह का कोई आंदोलन है तो ये मौजूदा भाजपा सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी होगी जिसका फायदा विपक्ष को मिलेगा।