उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम आ चुका है। लगातार दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है। उत्तर प्रदेश के इतिहास में यह पहला मौका है, जब एक ही मुख्यमंत्री लगातार दो बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेगा। मुलायम तीन और मायावती चार बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन ऐसा करिश्मा कर पाने में कामयाब नहीं हो पाए। तो यहां सवाल यह उठता है कि आखिर योगी आदित्यनाथ या भाजपा ने ऐसा क्या किया कि लगातार दूसरी बार उन्हें पूर्ण बहुमत की सत्ता मिल गई।
राजीव गांधी भी यूपी में कांग्रेस के जनाधार की वापसी नहीं करा सके थे
उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझना है तो इसे दो भागों में बांटना जरूरी होगा। एक मंडल की राजनीति के पहले वाला उत्तर प्रदेश और दूसरा मंडल की राजनीति के बाद का उत्तर प्रदेश। मंडल के पहले के उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ही बोलबाला रहा। जनता पार्टी के कुछ समय के शासनकाल को छोड़ दें तो। हम बात करते हैं, मंडल के बाद के उत्तर प्रदेश की। जब क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा कुलांचें मार रही थी तो मंडल के साथ-साथ कमंडल भी यूपी की राजनीति में अपना स्थान बनाने की कोशिश करने लगा। तभी तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या राम मंदिर का ताला खोलवाने की घोषणा कर यूपी की राजनीति से छूटती कांग्रेस की डोर को पकड़ने का आखिरी प्रयास किया था, असफल रहे। क्योंकि, तब तक भारतीय जनता पार्टी ने इस डोर में भगवा पतंग बांध यूपी की राजनीति के आसमान पर उड़ाना शुरू कर दिया था।
1990 में यूपी की राजनीति में परिवर्तन की नींव पड़ी
मंडल की लहर पर सवार मुलायम सिंह यादव जब उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गद्दीनशीं थे, तो अयोध्या में कारसेवा की घोषणा हो रही थी और गुजरात से रथ यात्रा निकालने की तैयारी। सेक्यूलर और समाजवादी विचारधारा वाले उत्तर प्रदेश को तब शायद यह मंजूर न था। या, यूं कहें, तब तक उत्तर प्रदेश के राजनीति मैदान में ‘हिंदुत्व’ की एंट्री नहीं हो पाई थी। महाराष्ट्र से शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे राम मंदिर को हिंदू स्वाभिमान और आस्था से जोड़ रहे थे। वहीं, ठीक एक दशक पहले अस्तित्व में आई भारतीय जनता पार्टी हिंदुत्व के साथ-साथ राष्ट्रवाद के एजेंडे को जनता के बीच पहुंचाने की छोटी-मोटी कोशिशों में जुटी थी। फिर आया 25 सितंबर 1990 का वह दिन, गुजरात के सोमनाथ मंदिर में पूजा के बाद अयोध्या की रथ यात्रा पर लालकृष्ण आडवाणी सवार हुए और इसी रथ पर सवार हो गया यूपी में परिवर्तन की राजनीति का भविष्य। इसी साल अयोध्या में कारसेवा करते रामभक्तों पर गोलियां चलीं। अयोध्या की धरती रामभक्तों के खून से लाल हुई। तभी यह तय हो गया था कि जब इस जमीन से लाल रंग हटेगा तो भगवा में ही बदलेगा।
एनडीए ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारने से किया परहेज
तीन दशक बाद कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का परिणाम कई संदेश एक साथ देता दिख रहा है। इसमें साफ-साफ और बड़ा संदेश यह है कि मोदी मैजिक कहीं गया नहीं है। योगी के नेतृत्व पर प्रदेश के लोगों को भरोसा है। हिंदुत्व के मुद्दे को भले ही राहुल गांधी लाख भला-बुरा कह लें, इसने एक बड़े वर्ग को अपनी आवाज दे दी है। अब हिंदू भी राजनीतिक और चुनावी मैदान में मुद्दा बन गया है। तुष्टिकरण के सहारे राजनीति करने वालों के सामने यह एक बड़ा संदेश है। इस चुनाव में भी एक तरफ कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच होड़ थी कि कौन मुसलमानों को सबसे अधिक टिकट देता है। वहीं, दूसरी तरफ यूपी के चौथे चुनाव में भी भाजपा ने किसी भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया। अनुप्रिया पटेल की अपना दल से रामपुर की स्वार सीट पर खड़े हैदर अली खान को छोड़ दें तो एनडीए भी कुछ इसी राह पर है। आइए इन पांच बिंदुओं से समझते हैं कि यूपी की राजनीति में आए इस बदलाव का कारण क्या है?
- पहला : साइलेंट वोटर
कोई चुप क्यों है, इसके जवाब जरूर तलाशने चाहिए। चुनाव प्रचार के दौरान हमारी टीम को कई जिलों में गरीब वोटरों की यह चुप्पी साफ दिखी। एक वरिष्ठ सहयोगी हमेशा कहते थे- सरकार किसकी बनेगी, यह चुप वोटर तय करने वाले हैं। दूसरी तरफ मतदाताओं का एक तबका था जो चौराहों पर, ढाबों पर, गांव की चौपाल में और टेलिविजन चैनलों के माइक पर खुलकर सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार कर रहा था। इनमें ज्यादातर समाजवादी पार्टी के कोर वोटर थे। टैक्सियों से दिल्ली, नोएडा और लखनऊ दौरे के निकले तमाम विश्लेषकों को शांत वोटरों का अंडर करंट नजर नहीं आ रहा था। इनके वाइब को समझने की कोशिश किसी भी राजनीतिक दल या चुनावी विश्लेषकों ने नहीं की। हर बार की तरह वे खामोशी से बूथ पर गए और अपना काम करके चले आए। - दूसरा : सबका विकास वाला फैक्टर
चुप वोटर ने जाति और कई जगहों पर मजहब के बंधन भी तोड़कर बीजेपी गठबंधन को वोट किया। सीतापुर के गांव से लखनऊ में आकर कपड़े प्रेस करने वाले बबलू तीन महीने से बता रहे थे कि भइया, बाबा ही जितिहें। उनसे पूछो क्यों तो हमेशा यही जवाब होता था कि गरीब को अनाज मिल रहा है, अकाउंट में पैसा मिल रहा है, स्कूल यूनिफार्म का पैसा आ रहा है। इतना तो आजतक किसी की सरकार में नहीं मिला। बबलू पहले साइकिल और हाथी को वोट देते थे। बीजेपी के जीत का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे लोगों तक पहुंचा। लॉकडाउन के दौरान रोजगार न होने पर भी भूखे मरने की नौबत नहीं आई। कुछ पैसा ऐसे लोगों के खाते में पहुंचता रहा। छुट्टा जानवरों का मसला बड़ा था, लेकिन मुफ्त अनाज, तेल और योजनाओं का सीधा लाभ उस पर हावी हो गया। - तीसरा : उम्मीदवार से बड़ी पार्टी और नेता
विधायकों मंत्रियों से नाराजगी आखिर विपक्ष के काम क्यों नहीं आई। जवाब है कि लोग इस बार योगी, मोदी और अखिलेश को वोट दे रहे थे, न कि प्रत्याशी को। योजनाओं के लाभ से संतुष्ट गरीब और माफिया पर योगी के बुलडोजर के हमलावर रुख से खुश मिडिल क्लास ने प्रत्याशी का नाम तक नहीं देखा और पार्टी को वोट दिया। सवर्ण, पिछड़ा, दलित, जातीय और धार्मिक गोलबंदियां इन दो मुद्दों के आगे नही टिकीं। कल्याणकारी योजनाओं की सीधी पहुंच ने विधायकों, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की भूमिका को ही सीमित कर दिया है। योजनाओं में शामिल होने की योग्यता रखते हैं तो फिर जाति या धर्म का कोई बंधन नहीं। इसका सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी को हुआ। - चौथा : दलित वोट में बिखराव
यूपी के दलित वोट बैंक में बिखराव हो गया है। मायावती के वोट बैंक का बड़ा हिस्सा बीजेपी को जाना शुरू हो चुका है। अब नई बीजेपी सरकार को समझना होगा कि सबसे गरीब तबका तो उनके साथ जुड़ गया है, लेकिन मिडिल क्लास और युवाओं के शिफ्टिंग वोटरों में भी एक तरह की चुप्पी है। टैक्स देने का कोई खास फायदा न मिलना, महंगाई, बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा और बेरोजगारी से दुखी यह तबका भी अब तक चुप ही है। इनमें से काफी लोगों ने बीजेपी को वोट भी किया होगा, लेकिन 2024 और 27 के लिए उनकी चुप्पी के अर्थ को भी समझना होगा। चुप्पी जरूरी नहीं कि हमेशा मददगार ही हो। - पांचवां : सब पर भारी बुलडोजर
अगर आप किसी समाज में रह रहे हैं तो आपके सबसे जरूरी हो जाता है, वहां आपको सुरक्षा महसूस हो। अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो। त्वरित कार्रवाई हो। योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभालने के बाद एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन कर अपराध के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई। इसके बाद यूपी जैसे बड़े प्रदेश में अपराधों को रोक देना संभव नहीं है। लेकिन, अपराध के बाद सरकार का ऐक्शन हर किसी की नजर में होता है। हाथरस हो, उन्नाव हो या फिर लखीमपुर खीरी…योगी सरकार ऐक्शन में दिखी। जिन अपराधियों के नाम आए, सब जेल गए। बेल मिलना या न मिलना अदालत का मामला है। मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और आजम खान को जेल में डालकर रखा गया। उनके अवैध धंधों को नष्ट कर दिया गया। बिकरू कांड में संलिप्त अपराधी की गाड़ी पलटने पर भले लाख बवाल मचा, योगी बाबा से बुलडोजर बाबा हो गए। अखिलेश यादव ने तंज कसने के लिए उन्हें यह नाम दिया और इसी नाम को योगी आदित्यनाथ ने चुनावी हथियार बनाकर बाजी ही पलट दी। एंटी इनकंबैंसी का पूरा मामला बुलडोजर के चक्कों के नीचे दबकर चूर हो गया।
फिर सीटें क्यों घट गईं?
अब आपका सवाल होगा कि अगर योगी के खिलाफ कोई एंटी इनकंबैंसी नहीं थी तो फिर सीटों में कमी क्यों आई? इसका सीधा सा जवाब है कि भले ही सरकार के खिलाफ माहौल न हो, उम्मीदवारों के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा लोगों में था। मोदी-योगी के चेहरे के दम पर जीतने वाले विधायक पांच सालों तक क्षेत्र में गए ही नहीं। उन्हें लग रहा था कि एक बार फिर योगी-मोदी के नाम पर जीत जाएंगे। ऐसे में पार्टी बदल-बदल कर जीत दर्ज करने वाले नेताओं को जनता ने खूब सबक सिखाया। वहीं, यादवलैंड यानी दूसरे चरण की सीटों और पूर्वांचल में आखिरी फेज की सीटों पर जातीय समीकरण ने भाजपा की मुश्किलें बढ़ाईं। वैसे भी पांच साल बाद अगर कोई सरकार 63 प्रतिशत से अधिक सीटों पर अपना कब्जा जमा रही हो, 43 फीसदी के करीब वोट हासिल कर रही हो तो उसे कमजोर होना तो बिल्कुल नहीं मान सकते। ऐसे में इस बार की जीत भी योगी-मोदी के नाम। मिलते हैं अगले विश्लेषण पर।