“बिहार में सरकार अस्थिर है।” “बिहार की सरकार अब गिर जाएगी।” “बिहार की नीतीश सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकेगी।” ये कुछ ऐसे स्टेटमेंट्स हैं, जो पिछले कुछ दिनों में भाजपा नेताओं के मुंह से निकले हैं। तो दूसरी ओर एक कयासबाजी बिहार की राजनीति के जानकारों की तरफ से यह चल रही है कि “सीएम नीतीश कुमार कभी भी वापस एनडीए में जा सकते हैं।” दूसरी ओर भाजपा के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अमित शाह बिहार के दौरे पर राज्य की स्थिति के बारे में सीएम से नहीं राज्यपाल से बात करते हैं। चिराग पासवान गृह मंत्री से बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर देते हैं। तो एक ओर अमित शाह नवादा की रैली में कहते हैं कि “नीतीश कुमार के लिए भाजपा के दरवाजे बंद हैं।” सारे बयानों पर गौर करें तो क्या यह माना जाए कि नीतीश कुमार की सरकार गिरने वाली है? क्या यह भी माना जाए कि तेजस्वी से अलग होने की स्थिति में भी भाजपा, नीतीश कुमार की सरकार को 2017 की तरह बचाएगी नहीं?
नीतीश की चुप्पी को समझा गया बगावत?
अब सवाल यह उठता है कि नीतीश कुमार के एक बार फिर एनडीए में जाने की कयासबाजी क्यों लगाई जा रही है। तो इसका जवाब भाजपा और नीतीश कुमार के बीच के पुराने रिश्तों में मिल सकता है। दोनों वर्तमान रिश्ते पर गौर करें तो भले ही नीतीश कुमार एनडीए से अलग होने के बाद भाजपा पर बरसते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ दिनों से नीतीश कुमार खास बोल नहीं रहे। विशेषतौर पर उन मुद्दों पर जिसमें उनके सहयोगी उनकी बातें सुनना चाहते हैं। तेजस्वी यादव और लालू परिवार के दूसरे सदस्यों पर रेड के मामले में भी नीतीश लगभग चुप ही रहे। अरविंद केजरीवाल जैसे लालू विरोधी नेता भी इस मामले में एक तरह से विपक्ष के पक्ष में खड़े दिखे। राहुल गांधी के मामले पर तो पूरा विपक्ष एक ही कतार में दिखा। लेकिन सीएम नीतीश ने यहां भी मध्यमार्ग ले लिया। नीतीश कुमार की इसी चुप्पी को महागठबंधन से उनकी बगावत के तौर पर राजनीतिक जानकार जोड़ रहे हैं।
अमित शाह डील टूटने पर आए बिहार?
अगला सवाल यह है कि बिहार में अमित शाह मंथली विजिट में क्या साधने की कोशिश कर रहे हैं? दरअसल, यह सवाल अभी मौजूं इसलिए हो जा रहा है क्योंकि कर्नाटक चुनाव की घोषणा के बाद भी अमित शाह का दो दिनों तक सिर्फ बिहार में रहने का कारण अभी तक अबूझ पहेली की तरह है। क्योंकि अमित शाह भाजपा के स्टार प्रचारक हैं, अगली पंक्ति के नेता हैं, केंद्र में गृह मंत्री हैं। ऐसे नेता का इस वक्त उस राज्य में दो दिनों तक रहना, जहां अभी कोई चुनाव नहीं है, किसी को समझ नहीं आ रहा है। ऐसे में कयास यह लगाया जा रहा है कि अमित शाह इस बार बिहार उस डील के टूटने पर आए हैं, जिसमें एक बार फिर किसी तरीके से जदयू-भाजपा को करीब आने पर चर्चा चल रही थी। अमित शाह ने इस बार यह भी कहा कि नीतीश कुमार के लिए भाजपा के दरवाजे बंद हो गए हैं। ऐसे में अगर राजनीति के जानकार यह कह रहे थे कि नीतीश और भाजपा के करीब आने की कोई डील चल रही थी तो अब अमित शाह के बयानों को सच मान लें तो यह डील टूट चुकी है।
दरवाजे बंद होने की बात बार बार क्यों कह रहे शाह?
बिहार की राजनीति में अगला बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर भाजपा को बार बार सफाई क्यों देनी पड़ रही है कि भाजपा के दरवाजे नीतीश कुमार के लिए बंद हो गए हैं। भले ही यह बातें उठती रहें, भाजपा इसे अफवाह बताकर आगे बढ़ सकती थी। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। अब इसके कारणों पर गौर करें तो एक कारण तो यह है कि एक बार एनडीए से वापस जाने के बाद भी नीतीश कुमार जब वापस लौटे तो भाजपा ने उन्हें दोनों हाथों में उठाकर सीएम की कुर्सी पर बिठाया। ऐसे में यह हो सकता है कि एक बार फिर 2017 वाला सीन दुहरा दिया जाए। दूसरी ओर भाजपा इस बार नीतीश के अलग हो जाने के बाद भी अभी तक नीतीश कुमार पर निजी हमले नहीं कर रही है। भाजपा नीतीश कुमार को सिर्फ इसलिए कोस रही है क्योंकि वे तेजस्वी यादव और राजद के साथ हैं। ऐसे में यह सवाल उठ रहे थे कि क्या अभी भी जदयू-भाजपा के मिलन की गुंजाइश है। यह आशंका-संभावना बार बार लोगों के जेहन में आ रही है, शायद यही कारण है कि अमित शाह इसी को स्पष्ट करने के लिए बेमौसम बिहार के चक्कर लगा रहे हैं।