बिहार के बाहुबली आनंद मोहन जेल से बाहर हो चुके हैं। पैरोल और रिहाई के बीच औपचारिकता भर की देर है। आनंद मोहन की रिहाई समर्थन और विरोध, दोनों की कसौटी पर कसी जा रही है। दरअसल, सत्तापक्ष पर यह आरोप लग रहे हैं कि आनंद मोहन की रिहाई सिर्फ इसलिए कराई गई है ताकि राजपूतों के वोट सत्तापक्ष को मिल सकें। जबकि सत्तापक्ष इसे रुटीन इवेंट बता रही है। कानून के मुताबिक हुआ एक फैसला बताया जा रहा है। लेकिन आम जनमानस में आनंद मोहन की पुरानी छवि और भविष्य की योजनाओं के बारे में कौतूहल है। आनंद मोहन राजपूत बिरादरी से हैं और वे आगे के चुनाव में किसके लिए फायदेमंद होंगे, यह चर्चा का विषय है।
राजपूत प्रभाव वाले सीटों की संख्या अधिक
लोकसभा चुनाव को आधार बनाएं तो राजपूतों के प्रभाव वाले सीटों की संख्या ठीक-ठाक हैं। आठ से 10 सीटें मानी जाती हैं, जिन पर राजपूतों का प्रभाव है। इनमें सारण, महाराजगंज, औरंगाबाद, पूर्वी चंपारण, वैशाली, शिवहर, बक्सर, आरा और बांका जैसी सीटें हैं। इनमें छह सीटों पर तो अभी राजपूत नेता ही सांसद भी हैं। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इन सीटों पर आनंद मोहन के प्रभाव का प्रयोग महागठबंधन कर सकता है। चूंकि आनंद मोहन ने अपनी राजनीतिक शुरुआत ही राजपूत नेता के तौर पर अपनी ब्रांडिंग कर के की थी। तो महागठबंधन प्रयास कर सकता है कि उसे आनंद मोहन के प्रभाव का फायदा मिले। हालांकि आनंद मोहन का ट्रैक रिकॉर्ड कुछ और कहता है।
खस्ताहाल चुनावी प्रदर्शन
आनंद मोहन ने अपने पूरे जीवन में एक बार विधानसभा चुनाव जीता है और दो बार लोकसभा का चुनाव जीता है। 1990 में आनंद मोहन ने जेल में रहते हुए जनता दल के टिकट पर महिषी विधानसभा से चुनाव लड़ा और जीता। साल 1996 में आनंद मोहन ने जेल में रहते हुए शिवहर जिले से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। 1998 में फिर से इसी सीट से वो दोबारा लोकसभा सांसद बने, लेकिन इस बार चुनाव राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा, जिसे राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन दिया था। आनंद मोहन की 1998 के चुनाव में आखिरी जीत थी। इससे पहले 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने जीत दर्ज की थी। लेकिन उसके बाद उनके परिवार से चुनावी जीत रूठ गई। कुलमिलाकर आनंद मोहन का चुनावी जीत के मामले में रिकॉर्ड खास नहीं रहा है।
एक साथ तीन विधानसभा सीटों पर हारे आनंद मोहन
भले ही आनंद मोहन की आज पूछ ऐसे हो रही हो जैसे आनंद मोहन राजनीतिक जीत के लिए कितने जरुरी हैं। लेकिन अपने राजनीतिक लोकप्रियता के शिखर पर रहते हुए भी आनंद मोहन के लिए 1995 का विधानसभा चुनाव दर्दनाक रहा था। तब उन्होंने तीन सीटों पर खुद नामांकन भरा, चुनाव लड़े लेकिन तीनों पर हारे। 1999 में लोकसभा चुनाव में भी हार मिली। इसके बाद 2020 के पहले तक आनंद मोहन के परिवार के किसी व्यक्ति को जीत नहीं मिली। हालांकि उनकी पत्नी बार बार चुनाव लड़ती रहीं। लेकिन जीत नसीब नहीं हुई। 2020 के चुनाव में उनके बेटे चेतन आनंद को राजद के टिकट पर जीत मिली। ऐसे में चुनावी जीत के मामले में आनंद मोहन के परिवार का रिकॉर्ड उत्साहजनक नहीं रहा है।