सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने जातिगत गणना का पूरा डाटा(आंकड़ा) जारी करने के सम्बन्ध में बिहार सरकार को कड़ा निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश संजीव खन्ना ने कहा है कि जाति सर्वेक्षण आंकड़ा का विवरण आम तौर पर उन लोगों की सहायता के लिए सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराया जाना चाहिए, जो राज्य सरकार द्वारा शुरू किए गए निष्कर्षों और नीतियों को चुनौती देना चाहते हैं। न्यायमूर्ति खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष उपस्थित होकर, याचिकाकर्ता पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील राजू रामचंद्रन ने कहा कि बिहार सरकार पहले ही आगे बढ़ चुकी है और राज्य में आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 75% कर दिया है। वकील रामचंद्रन ने कहा कि वह सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे। साथ हीं अंतरिम आदेश पारित किया जा सके, इसके लिए उन्होंने अदालत से अगले ही सप्ताह बहस के लिए तारीख की भी मांग की है। इसपर जस्टिस खन्ना और जस्टिस दत्ता की पीठ ने उनकी इस मांग को खारिज़ करते हुए कहा कि हमारी भी कुछ सीमाएं हैं। हम निश्चित तौर पर इसकी विस्तृत सुनवाई करेंगे। लेकिन ये एक हफ्ते में ही हो जाए,ऐसा मुमकिन नहीं। पीठ ने इसके लिए 29 जनवरी की तारीख तय की है।
“आंकड़ा अधूरा, मतलब ज्ञान अधूरा!”
सुनवाई करते वक़्त न्यायालय ने ये भी कहा कि हाईकोर्ट के द्वारा दिए गए फैसले की सत्यता की भी जांच करनी जरूरी है। इसके साथ ही उन्होंने सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत करने का भी आदेश दिया है। वहीँ वकील राजू रामचंद्रन ने कहा कि, देखा जाये तो यह मामला अगस्त से यहां लंबित है। इस बीच, आरक्षण 50% से बढ़कर 75% भी हो गया है। हम इसमें अंतरिम राहत के लिए बहस करना चाहते हैं। वहीँ न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि मुझे सर्वेक्षण की रिपोर्ट से ज्यादा इस बात की चिंता है कि डाटा को जनता के समक्ष क्यूँ प्रस्तुत नहीं किया जाता, इससे बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि सरकार किस हद तक सर्वेक्षण के डाटा को रोक सकती है ? वहीँ बिहार के वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने कहा कि सर्वेक्षण सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है और इसे पहले ही राज्य विधानमंडल में पेश किया जा चुका है। इसपर जज ने कहा कि सर्वेक्षण का डाटा सार्वजनिक डोमेन में यदि चुनिंदा तरीके से डाला गया तो समस्या होगी। उन्होंने कहा कि डाटा को आंशिक रूप से डालने की जगह पूर्ण रूप में अर्थात वास्तविक डाटा को डालना चाहिए, जिससे आकलन में कोई परेशानी न हो। पूरा डाटा उपलब्ध होने पर ही किसी विशेष निष्कर्ष को चुनौती देने की अनुमति दी जा सकती है। साथ ही यदि कोई किसी विशेष अनुमान को चुनौती देना चाहता है, तो उसे मौका अवश्य ही दिया जाना चाहिए। अदालत ने साफ़ लहजे में कहा, अधूरा आंकड़ा मतलब अधूरा ज्ञान।
अक्टूबर महीने में भी अदालत ने टोका था सरकार को
इससे पूर्व अक्टूबर में बिहार सरकार को उसके जाति-आधारित सर्वेक्षण से एकत्र किए गए डाटा को प्रकाशित करने से रोक लगाने पर सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया था। आम चुनाव से कुछ महीने पहले, बिहार सरकार ने डाटा प्रकाशित किया था जिसमें खुलासा हुआ था कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) राज्य की आबादी का 63% हैं, जिनमें से ईबीसी 36% हैं जबकि ओबीसी 27.13% रही। आंशिक रूप से प्रकाशित इन आंकड़ों के बावजूद पटना हाईकोर्ट ने कोई संज्ञान नहीं लिया था। हाईकोर्ट ने सर्वे को भी सही ठहराया था। अक्टूबर महीने में हीं न्यायमूर्ति खन्ना ने सर्वे के विरुद्ध याचिकाकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, “आप किसी राज्य सरकार या किसी भी सरकार को निर्णय लेने से नहीं रोक सकते… हां, यदि डाटा के संबंध में कोई मुद्दा है, तो उस पर विचार अवश्य किया जाएगा।”
पूर्ण आंकड़े डालने से गोपनीयता का नहीं होता हनन
न्यायमूर्ति खन्ना ने इस बार भी इसी बात पर जोड़ देते हुए कहा कि मुख्य मुद्दा यह है कि “पारदर्शिता के लिए आम जनता को डाटा का कितना हिस्सा उपलब्ध कराया जाएगा?” आंकड़ा पूरी तरह से अपने वास्तविक रूप में ही प्रकाशित होनी चाहिए। सरकार अपनी सुविधानुसार यदि डाटा को काट- छांट के पेश करेगी तो ये जनता के साथ न्यायपूर्ण नहीं होगा। अदालत ने इस धारणा को भी खारिज कर दिया कि आंकड़ों के संकलन और प्रकाशन से कोई गोपनीयता प्रभावित होती है। न्यायमूर्ति खन्ना ने टिप्पणी की , ”गोपनीयता कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि आंकड़ों को किसी व्यक्तिगत नाम आदि के साथ प्रकाशित नहीं किया जाता।”