पटना. पूर्व विधान पार्षद व भाजपा के वरिष्ठ नेता ने आरएसएस चीफ मोहन भागवत पर जदयू नेताओं की टिप्पणी का जोरदार प्रतिकार किया है। डॉ. नंदन ने कहा कि जदयू की हैसियत कितनी है, यह किसी से छुपी नहीं है। जदयू के नेता को अगर बिहार के सीएम की कुर्सी मिली तो वो सिर्फ आरएसएस की अनुकंपा से ही संभव हो सका। आज तक जदयू की पहुंच देश तो दूर की बात है, बिहार में भी नहीं है। न तो जदयू के पास संगठन है और न ही नेता। आरएसएस की अनुकंपा पर जदयू नेताओं को विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा में जगह मिलती रही है और आने वाले वक्त में सबकुछ स्पष्ट हो जाएगा कि आरएसएस व भाजपा के बिना जदयू का कोई वजूद नहीं है।
डॉ. नंदन ने कहा कि जदयू ऐसी पार्टी है जो बिना जनाधार के बिहार का नेतृत्व कर रही है। आरएसएस और मोहन भागवत पर टिप्पणी करना जदयू के किसी नेता के औकत के बाहर की चीज है। जो भोंपू नेता आरएसएस पर टिप्पणी कर रहे हैं, उनका तो अपना कभी वजूद नहीं रहा है। ऐसे नेता अपने आकाओं को खुश कर जैसे तैसे पद पाते रहे हैं और चापलूसी कर आगे बढ़ने की कोशिश करते रहे हैं। यह बात जदयू ही नहीं सभी को पता है कि जदयू के सर्वेसर्वा नीतीश कुमार भी आरएसएस की अनुकंपा पाएं हैं। 2014 का लोकसभा चुनाव जदयू को याद करना चाहिए।
डॉ. नंदन ने कहा कि आरएसएस वो संगठन है जिसके लिए राष्ट्र सर्वप्रथम रहता है और हमेशा यही आरएसएस की नीति रहती है। लेकिन जदयू में बैठे नेता अभी आरएसएस पर टिप्पणी कर अपने उस आका की नौकरी बचाने की कोशिश कर रहे हैं, जो अब किनारे लगा दिए गए हैं। वैसे आरएसएस राष्ट्रवाद की विचारधारा को मानने वाला संगठन है और जदयू की विचारधारा सत्ता में बने रहने की है, जिसका कहीं से कोई मेल नहीं है। आरएसएस हर मोर्चे पर भारत के लिए लड़ा है। संघ के स्वयंसेवकों ने अक्टूबर 1947 से ही कश्मीर सीमा पर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर बगैर किसी प्रशिक्षण के लगातार नज़र रखी। यह काम न नेहरू-माउंटबेटन सरकार कर रही थी, न हरिसिंह सरकार। उसी समय, जब पाकिस्तानी सेना की टुकड़ियों ने कश्मीर की सीमा लांघने की कोशिश की, तो सैनिकों के साथ कई स्वयंसेवकों ने भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ाई में प्राण दिए थे।
डॉ. नंदन ने कहा कि आरएसएस का योगदान इस देश में इतना ही कि गिनना जदयू नेताओं के बूते के बाहर है। 1962 के चीन युद्ध में सेना की मदद के लिए देश भर से संघ के स्वयंसेवक जिस उत्साह से सीमा पर पहुंचे, उसे पूरे देश ने देखा और सराहा। स्वयंसेवकों ने सरकारी कार्यों में और विशेष रूप से जवानों की मदद में पूरी ताकत लगा दी – सैनिक आवाजाही मार्गों की चौकसी, प्रशासन की मदद, रसद और आपूर्ति में मदद, और यहां तक कि शहीदों के परिवारों की भी चिंता स्वयंसेवकों ने भी की। जवाहर लाल नेहरू को भी 1963 में 26 जनवरी की परेड में संघ को शामिल होने का निमंत्रण देना पड़ा। परेड करने वालों को आज भी महीनों तैयारी करनी होती है, लेकिन मात्र दो दिन पहले मिले निमंत्रण पर 3500 स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित हो गए।
डॉ. नंदन ने कहा कि दादरा, नगर हवेली और गोवा के भारत विलय में संघ की निर्णायक भूमिका थी। 21 जुलाई 1954 को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, 28 जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने 2 अगस्त 1954 की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया। जिस आपातकाल का विरोध कर भाजपा के साथ जदयू आई, उसमें भी आरएसएस की ही भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1975 से 1977 के बीच आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष और जनता पार्टी के गठन तक में संघ की भूमिका की याद अब भी कई लोगों के लिए ताज़ा है। सत्याग्रह में हजारों स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रह कर आंदोलन चलाना शुरु किया। आपातकाल के खिलाफ पोस्टर सड़कों पर चिपकाना, जनता को सूचनाएं देना और जेलों में बंद विभिन्न राजनीतिक कार्यकर्ताओं –नेताओं के बीच संवाद सूत्र का काम संघ कार्यकर्ताओं ने संभाला। जब लगभग सारे ही नेता जेलों में बंद थे, तब सारे दलों का विलय करा कर जनता पार्टी का गठन करवाने की कोशिशें संघ की ही मदद से चल सकी थीं।
इसलिए जदयू को आरएसएस के इतिहास के बारे में टिप्पणी करने से पहले थोड़ा पढ़ और समझ लेना चाहिए।