[Team insider] प्रकृति के करीब रहने वाले जनजातिय समाज का अपना ही अंदाज है। प्रकृति के हर आहट को पहचान लेते हैं। आने वाले खराब-अच्छे मौसम से लेकर जानवरों से खतरे तक को भांपने की क्षमता रखते थे। समय के साथ इसमें कमी आ रही है। अपने इसी हुनर के कारण सुनामी के दौरान अंडमान के बीहड़ में रहने वाले आदिवासियों ने अपनी जान बचाई थी।
नई पीढ़ी धीरे धीरे अपने इस हुनर को भूलने लगी है
एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर और रांची के श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुलपति रहे डॉक्टर सत्य नारायण मुंडा का जन्म रांची से कोई 35-40 किलोमीटर दूर हुआ था। टुंगरी डीह में जो अब फतेहपुर के नाम से जाना जाता है। बताते हैं कि तब जनजातीय समाज प्रकृति से इस कदर घुला मिला था कि पूछिए मत। आज के दौर में इसे अजीब सा हुनर कह सकते हैं। गांव के लोग जानते हैं कि कब शेर आने वाला है, कब बाघ आने वाला है या कब सांप अटैक करने करने वाला है, कब बीमारी आने वाली है। लोगों को यह सब अंदेशा चिड़ियों की आवाज से होती थी। वे चिड़ियों की आवाज-कोलाहल पहचानते थे। अलग-अलग संकट के समय अलग-अलग तरीके से चिड़ियां आवाज निकालती हैं। नई पीढ़ी धीरे धीरे अपने इस हुनर को भूलने लगी है। अब तो ऐसे लोगों को ढूंढना पड़ेगा।
अभी भी अनेक अंतराष्ट्रीय संगठनों से जुड़े हैं
33 साल तक रांची विवि में अध्यापन करने वाले डॉ मुंडा मैक्सिको, आयरलैंड, स्वीडेन, इटली, यूके, पोलैंड, ब्राजील की यात्रा कर चुके हैं। जनजातीय विषय पर गोष्ठि, सेमिनार में जनजातीय समाज से जुड़े पक्ष को रख चुके हैं। अभी भी अनेक अंतराष्ट्रीय संगठनों से जुड़े हैं। बताते हैं कि 1968-70 तक रांची के खिजरी ब्लॉक के कुदगड़ा, लाली पंचायत में चीते बहुत थे, तेंदुआ, बाघ के साथ साथ हाइना, जंगली कुत्ते, साही अच्छी संख्या में थे। भालू तो भेंड-बकरी की तरह काफी थे। हमारे इलाके में गिद्ध भी बहुत थे जो प्रकृति का संतुलन करते हैं, आज तो वे भी नहीं दिखते।
विकास के दौर में लोग उनके इलाकों में बसते चले गये
विकास के दौर में लोग उनके इलाकों में बसते चले गये। पहाड़ों की ब्लास्टिंग में धीरे-धीरे इनकी मौत होती गई, पलायन होता गया। चीता, बाघ जैसे बड़े जानकार काड़ा व बड़े पशुधन का शिकार करते थे। अंधेरा होने के बाद बस्ती में घुस आते और जंगली इलाके में तो दोपहर में भी हमला कर देते थे। हमारे आजा यानी दादा भालुओं के हमले का शिकार हुए थे। बुरी तरह लहु लुहान कर दिया था। 1970 में उनकी मौत हो गई।
उन्होंने कहा कि विकास से विरोध नहीं है मगर हमारा डेवपमेंट होना चाहिए सर्वाइवल ऑफ नेचर, सर्वाइवल ऑफ एनिमल किंगडम के प्वाइंट ऑफ व्यू से। मगर ऐसा नहीं हो सका। नतीजा है कि और भौगोलिक से लेकर सामाजिक स्तर तक बहुत परिवर्तन हो गया है।
सामाजिक सरोकार
तब उस इलाके में ज्यादा मुंडा लोग ही रहते थे। पटवन आदि के लिए सामूहिक तौर पर लॉडिया जुड़ू यानी नदी बांधते थे। उसी क्रम में मछली भी मारते थे, गांव के सभी लोग मिलकर। कोई हल बैल निकालता कोई कांड़ा कोई दूसरे तरह के औजार। अगर किसी वजह से कोई व्यक्ति बांध बांधने व मछली पकड़े के समय नहीं गया, शामिल नहीं हुआ तो उसे लांडिया जुड़ू यानी कोढ़िया आदमी की संज्ञा देकर उसे भी बराबर का हिस्सा देते थे। इस तरह का सामाजिक बुनावट था।
आदमी मरता नहीं है
ट्राइबल कम्युनिटी उबुल आदेन बोलते हैं मतलब आदमी कभी नहीं मरता है। किसी के परिवार के किसी बुजुर्ग की मौत होती तो मौत के बाद रश्म रिवाज होता है। घर के पास ही नौवें दसवें दिन पुआल का छोटा सा घर बना देते हैं और आग लगा देते हैं। फिर उस गुजरे हुए आमदी को आवाज लगाते हैं, चल रे मागरा, बुधुआ जो भी नाम है, आपका घर जल रहा है, उजड़ रहा है, आप आइए, हमारे साथ रहिए। उसके बाद बुला लिया जाता है। एक टीन बजाते हुए आह्वान करके घर ले आते हैं। उनका घर बसाते हैं। इसका मतलब आत्मा का गृह प्रवेश कराते हैं। मुंडा के साथ अन्य आदिवासियों में भी बड़े भाई की मौत पर बड़े भाई की पत्नी के साथ छोटे अविवाहित भाई की सामाजिक रीति से विवाह कराने की परंपरा है।
बच्चे तो अब मुंडारी मुंडारी ही भूल गये हैं
पत्नी की मौत पर साली के साथ और विधवा के पुनर्विवाह की भी पुरानी परंपरा है। लंबे समय से यहां रह गये गैर आदिवासियों ने भी इस तरह की परंपरा को अपनाया है। पिछले पांच-छह दशक में बड़ी संख्या में बाहर के लोग यहां आये। नॉन ट्राबइल अब डॉमिनेट करने लगे हैं। उनकी देखा देखी आदिवासी समाज में भी कोई थोड़ा पढ़ लिख लेता है, नौकरी में आ जाता है दहेज की गलत परंपरा शुरू हो गई है। भले ही इनकी संख्या एक प्रतिशत से भी कम हो। बताते हैं कि जब वे स्कूल में पढ़ते थे गांव के लोग मुंडारी छोड़ दूसरी भाषा नहीं जानते थे। अब स्थिति बहुत बदल गई है, अंतरजातीय विवाह बहुत हो गया है। उनके बच्चे तो अब मुंडारी मुंडारी ही भूल गये हैं।