रांची। देश महिला दिवस मना रहा है। अखबारों में सोशल मीडिया में महिला दिवस की धूम है। ऐसे ऐसे करेक्टर तलाशे गये, परोसा गया जिन महिलाओं ने कुछ खास हासिल किया हो, आधी आबादी का नाम रोशन किया हो। अपनी पहचान बनायी हो। खेत से लेकर स्पेस तक महिलाओं ने बड़ी तरक्की की है। इसी कड़ी में पांचवें राष्ट्रीय परिवार और हेल्थ सर्वे ने खुशी के इजहार का एक और अवसर दे दिया कि पहली बार देश में प्रति हजार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या 1020 हो गई। 2015 में यह आकड़ा 991 का था।
एक दौर वह भी था जब महिलाएं बहुत पीछे थीं
यह सब तरक्की यकायक नहीं हुई। एक दौर वह भी था जब महिलाएं बहुत पीछे थीं। 140 साल पहले दो लड़कियों का मैट्रिक पास करना भी खबर था। तब महिला दिवस भी नहीं मनाया जाता था। महिला दिवस के एक माह से कुछ ज्यादा पहले यानी 13 जनवरी 1881 के बिहार बंधु में खबर छपी थी -गजब किया। मिस कामनी सेन और स्वर्ण प्रभा बोस ने। इंट्रेंस का एक्जाम एक ने अव्वल दर्जे से दूसरे ने दूसरे दर्जे से पास किया। बिहार की औरतों का कब नसीब होगा।
मुंबई और मद्रास की स्थिति ज्यादा बेहतर थी
इसके दो साल बाद पहली फरवरी 1883 को इसी अखबार में खबर छपी – बेथउन स्कूल (कोलकाता का पहला महिला कॉलेज) से चंद्रमुखी बोस और कादम्बिनी बोस बीए के इम्तिहान में पास हुईं। बेशक तरक्की इसे कहते हैं। तब बिहार, ओडिशा और झारखंड बंगाल प्रांत का हिस्सा थे। बंगाल देश की राजधानी थी। शासन में बंगालियों का प्रभाव होने से उनकी स्थिति कुछ बेहतर थी। मुंबई और मद्रास की स्थिति ज्यादा बेहतर थी।
कुरीतियों के खिलाफ बुलंद किया था झंडा
उसी दौर में दक्षिण भारतीय परिवार में जन्मी रमा बाई ने महिला शिक्षा, महिलाओं के उत्थान और कुरीतियों के खिलाफ झंडा बुलंद किया था। जिस फरवरी में दो युवतियों के बीए पास करने की खबर छपी थी उसी साल यानी पहली फरवरी 1883 के बिहार बंधु में भारत वर्ष से स्त्रियों की दशा शीर्षक से छपी खबर से रमा बाई के स्वर का पता चलता है।
खबर कुछ उसी भाषा में- ”भारत वर्ष के स्त्रियों की दशा विषय पर पंडिता रमा बाई आजकल बम्बई में वक्तव्य दे रही हैं और हाल में ‘आर्य महिला सभा’ नामक औरतों की सभा खुली है। इस सभा के खोलते वक्त उन्होंने व्याख्यान दिया उसका सारांश यह है कि मरद औरतों से किस बात में बड़ा है, क्या सबब है कि मर्द लोग इतनी उन्नति दिन-दिन करते जाते हैं। क्या इसका कारण यह है कि वे स्त्रियों की अपेक्षा अधिक बलवान हैं।
केवल विद्या है जिसने पुरुषों को इस दर्जे तक पहुंचाया है
मैं कहती हं नहीं। केवल विद्या है जिसने पुरुषों को इस दर्जे तक पहुंचाया है और यह विद्या ही का अभाव है जिसने हमें नीच, दीन, हीन दशा को पहुंचा है। गुजरते जमाने में हम औरतों की कैसी अच्छी हालत थी और अब ब्योहार-उपद्रव पीड़ित है। बहुत दिनों तक सोये रहे, अब हमें जागना और अपनी दशा को सुधारना चाहिए। सब लोगों को मालूम है कि स्त्री शिक्षा मं बम्बई और मदरास वाले बहुत बढ़े चढ़े हैं।
उत्तर-पश्चिम पंजाब और पंजाब भी इस विषय में कुछ-कुछ कर रहे हैं
उत्तर-पश्चिम पंजाब और पंजाब भी इस विषय में कुछ-कुछ कर रहे हैं। कौन सुशिक्षित इस बात को सुनकर खुश न होगा कि बंगाल से कादम्बिनी बोस और चंद्रमुखी बोस दो लड़कियां इस साल बीए परीक्षा में उत्तीर्ण हुई हैं। पर अफसोस की बात है कि अभी तक बिहार में स्त्रियों की शिक्षा प्रदान करने के लिए कोई बंदोबस्त नहीं हुआ।
हम अपने बिहारी भाईयों से ऊंचे आवाज में निवेदन करते हैं कि जब तक वे अपनी बालाओं को न पढ़ायेंगे तब तक उन्नति की उम्मीद करना फजूल है। इस सबब से यह खबर सुनकर हमको बहुत खुशी मिली कि डुमरांव नीति धर्म्मोपदेशनी सभा ने बालाबोधनी पाठशाला नामक एक स्कूल लड़कियों को पढ़ाने के लिए खोली है। हमारी समझ में बिहार, क्या मानी, भारत वर्ष में हर एक शहर में इस तौर का एक स्कूल होना चाहिए। ”
15 साल की उम्र तक रमा ने स्कूल का चेहरा तक नहीं देखा था
कर्नाटका के गंगमूला जंगल में 23 अप्रैल 1858 को उनका जन्म हुआ था। दर असल उनके पिता पंडित आनंदा शास्त्री डोंगरे खुद क्रांतिकारी विचार वाले संस्कृत के बड़े विद्वान थे। अपनी पत्नी को उन्होंने संस्कृति की शिक्षा दी तो तो समाज ने उन्हें जाति से निकाल दिया। नतीजतन गंगमूला के जंगल में वे जीवन गुजारने लगे थे। 15 साल की उम्र तक रमा ने स्कूल का चेहरा तक नहीं देखा था। देखने में बला की खूबसूरत और विद्वान, 20 साल की उम्र में संस्कृत के 20 हजार स्लोक कंठस्त थे।
पटना के पिछड़ी जाति के वकील से की थी शादी
बिहार से इस मायने में उनका रिश्ता था कि उन्होंने पटना के पिछड़ी जाति के वकील बाबू विपिन बिहारी दास से 15 अक्टूबर 1880 शादी कर ली। जो उनसे उम्र में काफी बड़े थे। तब खबर छपी थी ‘रमा बाई से हमारी नाजरीन खूब वाकिफ हैं, 15 अक्टूबर को उन्होंने बांकीपुर के बाबू विपिन बिहारी दास एमएबीएल से शादी कर ली।
अलबत्ता यहां के लोग इस शादी से खुश नहीं हैं। क्योंकि बाई साहब ने अपनी जाति में शादी नहीं की है। वह ब्राह्मणी हैं और विपिन बिहारी दास बाबू शूद्र हैं। खैर जिसकी जैसी राय हो हम इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहते। इससे शायद किसी को शुबहा नहीं है कि रमा बाई सी और संस्कृत जानने वाली तो शायद हिंदुस्तान में और कोई न है।’ मगर उनका वैवाहिक जीवन लंबा नहीं चला। विवाद के दो साल के अंतराल में ही पति का निधन हो
संस्थान खोले, विधवा आश्रम कायम किया
जब पुरुषों का भी समुद्र पार कर विदेश जाना अच्छा नहीं माना जाता था मेडिकल की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गई थीं। लौटने के बाद स्त्री शिक्षा, स्त्री चिकित्सा और समाज सुधार क क्षेत्र में काफी काम किया। संस्थान खोले, विधवा आश्रम कायम किया। 1889 में मुंबई में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में पहली स्त्री प्रतिनिधि की हैसियत से उन्होंने बाल विवाह तथा विधवा स्त्रियों के केस काटे जाने के विरोध में आवाज उठाई थी।
पंडिता रमा बाई से मेरी रमा
14 अगस्त 1878 को बिहार बंधु में पहले पन्ने पर खबर छपी कि एक दिन रमा बाई कोलकाता यूनिवर्सिटी का सिनेट हाउस देखने गईं थीं। वहां प्रोफेसर टानी, गफ और पंडित महेश चंद्र न्यायरत्न ने उनका स्वागत किया। विभिन्न प्रकरण, समस्या पूर्ति पर वे तत्काल संस्कृत में श्लोक बनाती गईं। इसके बाद से इन्हें पंडिता रमा बाई कहा जाने लगा।
16 अगस्त 1883 को बिहार बंधु के पृष्ठ संख्या दो पर रमा बाई द्वारा गुजरात अपने परिचित को लिखा पत्र छपा था। जिसमें उन्होंने लिखा था कि हकीकत में हिंदू महिला का बिलायत में रहना गैर मामूली है। पर मैं इसमें कुछ खराबी नहीं समझती। इंग्लैंड में रहकर चिकित्सा सीखूंगी, पढ़ना मैंने आरंभ कर दिया है।… जब मैं हिंदुस्तान से चली थी अंग्रेजी का एक शब्द न बोल सकती थी न समझ सकती थी पर अब दो महीने के बीच इस जबान को अच्छी तरह बोल लेती हूं। ….यहां मराठी पढ़ाने के एवज में रहने और खाने का इंतजाम हो गया है।
मैं ईसाई होना नहीं चाहती न इंग्लैंड में पुनर्विवाह करूंगी
मैं समझती हूं समाज मेरी इंग्लैंड यात्रा को पसंद नहीं करता। एमडी करने तक इंग्लैंड में रहूंगी। मैं ईसाई होना नहीं चाहती न इंग्लैंड में पुनर्विवाह करूंगी। अगर यह सब मैं करना चाहती तो हिंदुस्तान में अच्छी तरह कर सकती थी। बाद में खबर छपी कि रमा बाई मेरी रमा हो गई हैं। उन्होंने इंग्लैंड में ही ईसाई धर्म अपना लिया। तर्क यह कि हिंदु महिलाओं की दुर्दशा देख विरोध स्वरूप उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया। उन्होंने महिलाओं के उत्थान के लिए काफी काम किये। 1922 में दुनिया से विदा हो गयी।