बिहार विधानसभा चुनाव में सिकटी सीट, निर्वाचन क्षेत्र संख्या 51 (Sikti Vidhansabha) हमेशा से ही राजनीतिक दलों के लिए रणनीतिक रूप से अहम रही है। अररिया जिले की यह सीट 1977 में अस्तित्व में आई थी और तब से लेकर अब तक यहां का सियासी परिदृश्य कई बार करवट बदल चुका है। पहले यह सीट पलासी विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा थी, लेकिन 2009 में हुए परिसीमन के बाद इसे अररिया लोकसभा से जोड़ दिया गया। तीन प्रखंडों की 37 पंचायतों को मिलाकर बने इस क्षेत्र की सामाजिक और भौगोलिक संरचना ने इसके राजनीतिक महत्व को और भी बढ़ा दिया है।
चुनावी इतिहास
सिकटी विधानसभा का चुनावी इतिहास दिलचस्प रहा है। अब तक यहां कुल 10 चुनाव हुए हैं, जिनमें कांग्रेस और बीजेपी तीन-तीन बार विजयी हुई हैं। वहीं, दो बार निर्दलीय और एक-एक बार जनता दल तथा जेडीयू ने जीत दर्ज की है। इस क्षेत्र की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा मो. अजीमउद्दीन रहे, जिन्होंने पांच बार यहां से जीत हासिल की और चार बार मंत्री पद संभाला। खास बात यह रही कि उन्होंने चार बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीता। उनके बाद कांग्रेस के शीतल प्रसाद गुप्ता और रामेश्वर यादव भी सिकटी की राजनीति में अहम भूमिका निभा चुके हैं।
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वर्तमान में इस सीट पर बीजेपी का कब्जा है। 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के विजय कुमार मंडल ने जेडीयू के शत्रुघ्न प्रसाद सुमन को मात देकर पहली बार सिकटी में कमल खिलाया था। उन्होंने 76995 (46.48%) वोट पाकर जीत दर्ज की थी, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंदी को 68889 (41.59%) वोट मिले। 2020 के चुनाव में बीजेपी ने अपनी पकड़ और मजबूत की। इस बार विनय मंडल ने आरजेडी के शत्रुघ्न मंडल को 13610 वोटों के अंतर से हराया। बीजेपी उम्मीदवार को 84,072 वोट मिले जबकि राजद प्रत्याशी को 70,356 वोट मिले।
जातीय समीकरण
इस सीट पर चुनावी समीकरण की सबसे बड़ी कुंजी जातीय और धार्मिक आधार पर बंटी मतदाता संरचना है। सिकटी में मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक हैं और वे चुनाव परिणाम को निर्णायक रूप से प्रभावित करते हैं। वहीं, यादव समुदाय भी यहां की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुल मतदाताओं की संख्या 2,79,102 है, जिनमें पुरुष मतदाता 1,46,343 और महिला मतदाता 1,32,752 हैं।
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सिकटी विधानसभा की सियासत का केंद्रबिंदु यही है कि मुस्लिम और यादव मतदाताओं की गोलबंदी किस दल की तरफ झुकती है। बीजेपी ने 2015 और 2020 में यह साबित किया कि वह पारंपरिक समीकरणों को तोड़ने और नए सामाजिक गठजोड़ बनाने में सक्षम है। आने वाले चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या बीजेपी अपनी पकड़ बनाए रखती है या आरजेडी और कांग्रेस जैसी पार्टियां जातीय समीकरणों के सहारे यहां वापसी करती हैं।






















